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________________ १९० सूत्र संवेदना - २ सामान्यजन की निंदा भी लोकविरुद्ध है, तो जो बहुत लोगों को मान्य हैं, अनेकों के पूजनीय और आदरणीय हैं, ऐसे गुणसंपन्न उत्तम पुरुषों की निंदा तो अत्यंत लोक विरुद्ध कहलाती है । ऐसे व्यक्ति की निंदा करने से बहुत बड़ा वर्ग निंदक का विरोधी बनता है। हृदय की कठोरता के बिना निंदा जैसा लोकविरुद्ध कार्य हो नहीं सकता । कठोर हृदय वाला धर्म के लिए अयोग्य है। निंदा का फल : निंदा से कभी फायदा तो नहीं होता, ऊपर से अत्याधिक नुकशान भुगतना पड़ता है । निंदक को कोई नहीं चाहता, वह सबको अप्रिय लगता है, उस पर किसी को विश्वास नहीं होता। निंदक को उपकारियों की निंदा करने में भी कोई संकोच नहीं होता, क्योंकि वह खुद को महान मानता है, यह अभिमान उससे सब पाप करवाता है। परिणाम स्वरूप वह कर्म से भारी बनता है । सब जगह वह अपयश का भागी बनता है । उसकी उज्ज्वल कीर्ति नष्ट होती है। स्वजन, परजन, लोकजन सब उससे दूर-दूर हो जाते हैं। इस कारण वह अकेलापन अनुभव करता हुआ हताश हो जाता है और कभी इससे आत्महत्या के पथ पर प्रयाण कर सकता है, इसलिए साधक को कभी निंदा के मार्ग पर नहीं जाना चाहिए। निंदा के इस कुसंस्कारों को निकालने के लिए साधक, यह पद बोलते हुए परमात्मा को प्रार्थना करता है - “हे नाथ ! आपके प्रभाव से मेरा निंदा का रस खत्म हो जाए !" २. ऋजुधर्मकरण हसन : मंद बुद्धिवाले जीवों की स्वबुद्धि के अनुसार की जानेवाली धर्मक्रिया के ऊपर हँसना - हँसी-मजाक करना । सज्जन पुरुष कभी भी किसी की भूल देखें, तो आत्मीयता से (वात्सल्य से) उसकी भूल सुधारने का यत्न करते हैं। यत्न करने के बाद भी अगर वह व्यक्ति न सुधरे, तो माध्यस्थ्य भाव से उसकी उपेक्षा करते हैं, परन्तु हँसी-मजाक या उसका उपहास तो नहीं ही करते । धर्मविषयक जिन जीवों की पूर्ण समझ नहीं है, वैसे नूतन धर्मात्मा की कोई अयोग्य प्रवृत्ति देखकर उपहास करना, उस पर टूट पड़ना, लोकविरुद्ध कार्य है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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