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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र)
१८३ “हे भगवंत ! आपके प्रभाव से मुझे मोक्षमार्ग का अनुसरण प्राप्त हो !"
कर्म और कषाय रहित आत्मा की शुद्ध अवस्था मोक्ष है और उसे प्राप्त करने का तप-संयम आदि रूप उपाय ही मोक्षमार्ग है । इस मोक्षमार्ग का अनुसरण करना, मार्गानुसारिता है ।
मोह की पराधीनता के कारण अनादिकाल से जीव अनंत सुख को देनेवाले मोक्षमार्ग की उपेक्षा करके विषय और अलाय रूप संसार के मार्ग पर चलता है। यही जीव की वक्रता है, यही जीव की अनादि की टेढ़ी चाल
मोहनीय कर्म मंद होने के बाद किसी उत्तम पुरुष का योग होता है, तब उसके वचन से कुमार्ग-सुमार्ग का बोध होता है और कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर चलने की भावना होती है। फिर भी अनादिकालीन संस्कारों से उत्पन्न होने वाला भौतिक सुख का आकर्षण उसे मोक्षमार्ग में टिकने नहीं देता। इसीलिए यह पद बोलते साधक प्रभु के पास प्रार्थना करते हुए कहता है -
“हे नाथ ! अनादिकाल से मेरा जो कुमार्गगमन है, अनादिकाल की जो मेरी टेढ़ी चाल है, उसे रोककर आप मुझे मोक्षमार्ग की तरफ गमन करवाएँ। आप मेरी वृत्ति और प्रवृत्ति को मोक्षमार्ग की तरफ मोड़ें ।” 'हे प्रभु ! मैंने धर्म तो बहुत बार किया है, परन्तु वह भी इस लोक या परलोक के सुख के लिए ही । तप-त्याग भी बहुत किया है, परन्तु वह भी मानादि कषाय के लिए। पर धर्म करके मुझे कषायों का त्याग करना है, मुझे आत्मा का आनंद प्राप्त करना है, ऐसी भावना से मैंने कभी धर्म नहीं किया होगा। इसलिए हे विभु ! सबसे पहले मुझे आप आत्माभिमुख बनाएँ ! आत्मा के आनंद के लिए तप-त्याग में प्रयत्न करवाएँ,
तो ही मुझमें मार्गानुसारिता नाम का गुण प्रकट होगा ।' जिज्ञासा : मार्गानुसारिता नाम का यह गुण जिसे प्राप्त हो गया हो, उसके लिए यह प्रार्थना क्या योग्य है ?