SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ सूत्र संवेदना - २ तृप्ति : यह मार्गानुसारिता भी तरतमता के भेद से अनेक प्रकार की है। जिसे सामान्य स्तर की मार्गानुसारिता प्राप्त हुई हो, वह उससे विशेष प्रकार की मार्गानुसारिता के लिए प्रार्थना करें, तो वह योग्य ही है। जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक हर एक भव में इससे अधिक से अधिक स्तर की मार्गानुसारिता मुझे मिलें! ऐसी प्रार्थना ही उन भावों को निष्पन्न करने के लिए अत्यंत प्रयत्न करवाती है, उसके प्रति प्रीति को बढ़ाती है और उन भावों के संस्कारों को ज्यादा सुदृढ़ बनाती है । जिससे इस भव में तो वह वस्तु मिलती है, परन्तु जन्म जन्मांतर में भी उसकी प्राप्ति सुलभ बनती है । मिथ्यात्व-मोहनीय-कर्म मंद होने पर जब जीव अपुनर्बंधक दशा को प्राप्त करता है, तब इस गुण का प्रारम्भ होता है और सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, निरतिचार संयम और निर्विकल्प अवस्था में उत्तरोत्तर इस गुण की वृद्धि होने से जब यह जीव अयोगी अवस्था में सर्व संवरभाव का संयम प्राप्त करता है, तब इस गुण की पराकाष्ठा प्राप्त होती है। इस गुण की पराकाष्ठा को प्राप्त करने के लिए हर एक भूमिका के साधक के लिए यह प्रार्थना योग्य है । मोक्षमार्ग में सहायक सामग्री मिले, तो ही साधक मोक्षमार्ग पर निर्विघ्न आगे बढ़ सकता है, इसलिए मोक्षमार्ग में अनुकूल सामग्री रूप अब तीसरी इष्टफल सिद्धि की प्रार्थना की जाती है । इट्ठफलसिद्धि - इष्टफल की सिद्धि, मनोवांछित फल की प्राप्ति । "हे भगवंत! मुझे आपके प्रभाव से इष्टफल की प्राप्ति हों ।” साधु या श्रावक के लिए सर्वोत्कृष्ट इष्ट वस्तु मोक्ष ही है । यह अंतिम फल ही उसे इच्छित होता है। इस मोक्ष की प्राप्ति में अंतरायभूत कर्मों के उदय में अगर समाधि न टिके, तो साधक को समाधि में बाधक ऐसे विनों को दूर करने की इच्छा भी होती है। यह इच्छा उसके लिए आनुषांगिक इष्ट है, इस प्रकार मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने में जो उपयोगी बने, जिसका परिणाम
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy