________________
जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र)
१८१ इस प्रकार अनंतकाल से परिभ्रमण करते करते जब कर्ममल का नाश होता है और पुण्योदय से साधक को किसी महापुरुष का सुयोग होता है
और जब उनके मुख से धर्मशास्त्र का श्रवण करने को मिलता है, तब उसे इस संसार की वास्तविकता का ख्याल आता है । संसार के पराधीन सुखों की तुलना में आत्मा के स्वाधीन सुख ही सच्चे हैं, धन-संपत्ति आदि के . भय-युक्त सुख की तुलना में गुणसंपत्ति का निर्भय सुख उत्तम है । रागादिजन्य स्त्री के सुख की तुलना में उपशम भाव का आत्मीय सुख ज्यादा आनंददायक है, ऐसा उसे समझ में आता है।
ऐसे भौतिक सुख में आसक्त होने से नरक-तिर्यंच गति के अनंत दुःख भुगतने पड़ते हैं। आज मिले हुए ये सुख भी आत्मा की दुर्दशा, करनेवाले हैं, कर्मबंध करवाकर अनेक भवों की परंपरा का सृजन करनेवाले हैं, ऐसा समझने के कारण उन सुखों से छूटने की कुछ इच्छा भी होती है ।
इसके बावजूद अनादिकाल के कुसंस्कार, विषयों से ही सुख पाने की बुरी आदत और कषायों को ही सुख के साधनभूत मानने की वृत्ति के कारण साधक पुनः उसमें प्रवृत्त होकर वहाँ आसक्त हो जाता है। इस सुख का त्याग करने की उसकी भावना नष्ट हो जाती है। संसार के मोह से मुक्ति पाने की उसकी इच्छा नामशेष हो जाती है और फिर से वह दुःखी होता है । अपनी यह अवस्था देखकर उसे लज्जा आती है । परन्तु स्वयं इस परिस्थिति से निकलने का अपना सामर्थ्य न देखकर, वह यह पद बोलते हुए भगवान से प्रार्थना करता है -
“हे नाथ ! मुझ पर कृपा करें और विषय-कषाय से भरे इस संसार पर मुझे उद्वेग पैदा करवाएँ जिससे मैं मोक्ष और उसके अनंत सुखों के लिए कुछ यत्न कर सकूँ । जब तक मेरा इस संसार का राग कम नहीं होगा, उसकी आसक्ति कम नहीं होगी, तब तक मुझे धर्म में रस नहीं पड़ेगा, उसमें रुचि नहीं बढ़ेगी और