________________
१८०
सूत्र संवेदना - २
मोक्ष के लिए जरूरी गुणों की प्रगति के लिए मैं सहृदय प्रार्थना करता हूँ । हृदयपूर्वक की गई मेरी इस प्रार्थना को आप सुनें !
और हे कृपानिधान ! कृपा करके मुझे इन गुणों का दान करें ।” अब साधना के लिए सबसे पहले जिसकी जरूरत है, उस गुण की प्रार्थना करते हुए कहते हैं
भवनिव्वेओ - भव से उद्विग्न । "हे भगवान ! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद की प्राप्ति हो ।”
भवनिर्वेद अर्थात् संसार से उद्वेग, संसार के प्रति अरुचि , संसार से भाग जाने की इच्छा, संसार का अबहुमान । __ भव अर्थात् संसार । जब तक आत्मा संसार में है, तब तक उसे एक भव से दूसरे भव में जाना ही पड़ता है । जन्म लेते ही जीव का शरीर के साथ संबंध होता है । शरीर के कारण उसे अनेक ज़रूरतें खड़ी होती हैं । उन ज़रुरतों को पूरी करने के लिए उसे अथग प्रयत्न करना पड़ता है। विवेकहीन जीव उस प्रयत्न से पुनः नए कर्म बाँधते हैं और कर्म बाँधकर अनंत दुःखों का भाजन बनते हैं। दुःखों को सहन करते करते कहीं थोड़ा पुण्य बंध होता है और उससे थोड़ा सुख भी मिलता है, परन्तु वह सुख काल्पनिक और दुःख से राहत (अल्पकालीन दुःख का प्रतिकार) मात्र होता है । __ यही वास्तविकता है, इसके बावजूद भी मिथ्यात्व के कारण जिसकी बुद्धि भ्रमित हो गई है, पाँच इन्द्रियों के विषयजन्य सुख से अलग आत्मा का सुख जिसने कभी देखा ही नहीं है, उसे दुःख से राहत रूप भौतिक सुख ही सारभूत लगते हैं । उस सुख में पराधीनता, भय, श्रम आदि अनेक दुःख होने के बावजूद उस तरफ उसकी दृष्टि भी नहीं जाती । भौतिक सुख सामग्री की प्राप्ति में ही उसे आनंद आता है और उसकी अप्राप्ति में दुःख होता है।