________________
जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) १७९ कृपा है यह बहुमान भावरूप कृपा गुणों की प्राप्ति में विघ्न करनेवाले कर्मों का विनाश करके, गुणों की प्राप्ति करवाकर साधक को साधना मार्ग में आगे बढ़ा सकती है ।
द्रोणाचार्य के प्रति बहुमान और अंतरंग भक्ति के कारण जैसे एकलव्य द्रोणाचार्य की धनुर्विद्या को प्राप्त कर सका, वैसे भगवान के प्रति भक्ति का भाव, साधक को जरूर इन गुणों में आगे बढ़ा सकता है ।
आपके प्रभाव से मुझे यह प्राप्त हो, ऐसा कहने से मानादि कषाय को भी स्थान नहीं मिलता । करोड़ों की संपत्ति स्व प्रयत्न से प्राप्त करनेवाला कुलवान पुत्र कभी नहीं कहता कि, 'यह मेरा है' या 'यह मैंने प्राप्त किया है, बल्कि कहता है कि, 'यह बुजुर्गों का है, उनकी कृपा से मिला है ।' ऐसा कहने से मानकषाय घटता है, नम्रतादि गुणों का विकास होता है, गुणप्राप्ति का यही मार्ग है ।
भगवान तो वीतराग है। रागी पुरुष की तरह वे किसी को देने की इच्छा वाले भी नहीं होते और किसी को देते भी नहीं हैं । सिद्धांत को जानने वाली आत्मा यह बात जरूर समझती है, साथ में यह भी समझती है कि, 'चाहे भगवान न दे तो भी भगवान के निमित्त के बिना जीव शुभ भाव में प्रयत्न नहीं कर सकता और शुभ भाव के बिना अशुभ भाव से बंधे कर्म
का विनाश नहीं होता । इस तरह इन गुणों की प्राप्ति में भगवान ही निमित्त है और गुणों की प्रार्थना गुणवान के पास ही की जाती है । इसलिए ‘भगवान से मुझे ये सभी प्राप्त हों।' यह कहना योग्य ही है ।
यह पद बोलते हुए श्रेष्ठ कोटि के रूपवाले, परम ऐश्वर्यवाले और केवलज्ञानादि गुणों वाले भगवान मेरे सामने हैं, मेरे हृदय में बिराजमान हैं। ऐसी कल्पना करके उनके प्रभाव से ही इन गुणों की प्राप्ति होगी, ऐसे दृढ़ विश्वास और श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करें कि,
"हे भगवंत ! मुझे सुखी होना है । सच्चा सुख मोक्ष में है । मोक्षमार्ग पर चलने के लिए गुणों की प्राप्ति अनिवार्य है, इसलिए