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उवसग्गहरं सूत्र
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आप ही मेरे कल्याण को करनेवाले हैं, अपार संसार से तारनेवाले भी आप ही हैं, आप ही प्राण हैं, त्राण हैं, शरण्य हैं। आप सम्यग्दर्शन आदि गुणों के स्वामी होने से वह देने में समर्थ हैं; इसलिए हे देवाधिदेव ! मुझे आप से
और कुछ नहीं चाहिए केवल भवोभव सन्मार्ग में सहायक बनें, ऐसा सम्यग्दर्शन मुझे दीजिए ।"
मोक्ष का स्वरूप जिन्होंने जाना है और मोक्ष का अनन्य कारण सम्यक्त्व है, वैसा जिन्हें प्रतीत हुआ है, वैसी आत्माओं के मन में इस जगत् में बोधिसम्यक्त्व से बढ़कर और कुछ नहीं है । वे समझते हैं कि, एक बार भी अगर यह सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाएगा, तो इस जगत की नाशवंत श्रेष्ठ चीज़ या भौतिक सुख तो क्या, आत्मा का शाश्वत सुख भी मुझे मिले बिना नहीं रहेगा, इसलिए वे परमात्मा को संबोधित करते हुए कहते हैं - "इस भक्ति के बदले मुझे और कुछ नहीं चाहिए, जब तक मुक्ति न मिले, तब तक हर एक भव में मुझे बोधि-सम्यक्त्व दीजिए ।
मुमुक्षु आत्मा समझती है कि - यह बोधि आसानी से मिल जाए, वैसी चीज़ नहीं है। लोकोत्तर पुरुष के पास भावपूर्ण हृदय से पुनः पुनः प्रार्थना करने से ही यह मुझे मिल सकेगी।
यद्यपि, पार्श्वनाथ भगवान तो वीतराग हैं । वीतराग कभी किसी को कुछ नहीं देते, तो भी भावपूर्ण हृदय से की गई परमात्मा की प्रार्थना ही उस प्रकार के कर्म का क्षयोपशम करवाकर, उन गुणों को प्राप्त करवाती है । 'हाँ' प्रार्थना सच्चे हृदय से होनी चाहिए, शब्द मात्र से नहीं; और इस प्रार्थना के अनुरूप जीवन में यत्न भी होना चाहिए । भाव से की गई प्रार्थना के साथ स्वशक्ति के अनुसार तत्त्वमार्ग को समझने का और आचरण करने का प्रयत्न ही साधक के लिए सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण बनता है ।