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________________ १७० सूत्र संवेदना - २ सागर से पार हुए होते हैं और अन्य को पार उतारने में प्रबल निमित्त बनते हैं। ऐसे लोकोत्तर पुरुष का यश तीनों लोक में और दसों दिशाओं में फैला हुआ होता है । इसी से महान यशवाले उन्हें महायशस्वी कहा जाता है । _ 'देव' शब्द यहाँ देवाधिदेव के लिए प्रयोग किया गया है । जगत् में सुख-संपत्ति की अपेक्षा से देव महान गिने गए हैं, परन्तु परमात्मा तो ऐसे देवों के भी देव हैं, क्योंकि वे अनंत सुख के स्वामी हैं । अनंत ज्ञानादि संपत्ति के मालिक हैं, इसलिए वे ही वास्तविक अर्थ में देवों के देव है। 'जिणचंद' - जो जिनों में चंद्र हैं, वे 'जिनचंद्र' हैं। रागादि शत्रु को जीतनेवाले को जिन कहते हैं । 'जिन' से सामान्य केवलि भगवंतों आदि का भी समावेश होता है । ऐसे जिनों में भी विशिष्ट गुण और विशेष प्रकार के पुण्य के कारण पार्श्वनाथ भगवान चंद्र तुल्य हैं, इसलिए वे जिनचंद्र कहलाते हैं । इस तरह पार्श्वनाथ भगवान को विविध विशेषणों से संबोधित करके, साधक अपने भक्ति भरे हृदय से प्रभु के पास प्रार्थना करता है - "हे देव ! पूर्व की गाथा में जिन शब्दों द्वारा आपके मंत्र या प्रणाम का माहात्म्य बताया है, उन शब्दों से मैंने भक्ति भरे हृदय से सम्यग् प्रकार से आपकी स्तुति की है । उस कारण से और जिस कारण से आपका सम्यकच मोक्ष सुख देता है, उस कारण से आप मुझे भवोभव सम्यक्त्व प्रदान करें ।” भक्ति से भरे हृदय से जब भक्त भगवान के पास कुछ याचना करता है, तब वह अंतरंग बहुमान के परिणाम से ऐसी भावना करता है - “हे महायशस्वी प्रभु ! आप अचिंत्य शक्ति से युक्त हैं, आपका नाम या मंत्रजाप भी महप्रभाववाला है, आपको किया गया प्रणाम भी अत्यंत फलदायी है और आपका सम्यक्त्व तो अंत में मोक्ष तक पहुंचाता ही है, इसलिए आप ही मेरे लिए आराध्य देव हैं, आप ही मेरे सुख के साधन हैं,
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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