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________________ १६९ उवसग्गहरं सूत्र इसीलिए कहा गया है कि विषयों पर आसक्ति वाली जीव विषयों का सेवन न करते हुए भी सेवन करता है और ज्ञानी पुरुष विषयों को अनासक्त भाव से सेवते हुए भी नहीं सेवते। यह बात स्पष्ट करते हुए पू. रूपविजयजी महाराज पंचकल्याणक की पूजा में कहते हैं कि - सम्यग्दर्शन गुण से अलंकृत ऐसी तीर्थंकर की आत्माएँ... भोग करम फल रोग तणी परे, भोगवे राम निवारी रे, परवाला परे बाह्य रंग धरे, पण अंतर अविकारी रे... श्री जिनराज यह गाथा बोलते हुए साधक को लगता है कि, “प्रभु ! इस जगत् में सर्वश्रेष्ठ वस्तु आपका सम्यग्दर्शन है । आपकी भक्ति के प्रभाव से एक बार भी यदि यह गुण मुझे प्राप्त हो जाए, तो मेरी मोक्षप्राप्ति निश्चित हो जाए ।” ऐसी संवेदना के साथ, भावपूर्वक अगर यह गाथा बोली जाए, तो साधक आत्मा इस गुण को सहजता से प्राप्त कर सकती है । सम्यक्त्व का महत्त्व बताकर अब उसकी प्रार्थना करते हैं । इअ संथुओ महायस ! भत्तिभर-निब्भरेण हियएण, ता देव ! दिज बोहिं भवे भवे पास जिणचंद ! हे महायशस्वी ! भक्ति से भरे हुए हृदय से इस प्रकार (पूर्व की गाथा में बताई गई रीति से) मैंने आपकी स्तुति की है, इसलिए हे देव ! हे जिनों में चंद्र समान पार्श्वनाथ भगवान ! (आप मुझे) जन्मोजन्म बोधि प्रदान करें । इस गाथा में तीन विशेषणों से युक्त पार्श्वनाथ भगवान के पास साधक अपनी स्तवना के फलरूप बोधि की याचना करता है । यहाँ पार्श्वनाथ भगवान को महायशस्वी, देव तथा जिनचंद्र-ऐसे तीन विशेषणों से वर्णित किया गया है । 'महायस' अर्थात् महा-यशस्वी । सभी दिशा में फैलनेवाली प्रशंसा को यश कहते हैं । तीर्थंकर परमात्मा महासत्त्ववाले होते हैं । वे स्वयं संसार
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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