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________________ १६८ सूत्र संवेदना - २ पहले बंधे हुए गाढ़ कुकर्म के कारण होता है । ये कर्म ही सम्यक्त्व से जीव को दुर्गति में भ्रमण करवाते हैं। ऐसे कर्म अगर पूर्व में न बंधे होते, तो सम्यक्त्व गुण ही ऐसा है, जो किसी भी प्रवृत्ति को करते हुए जीव को मोक्ष मार्ग के अनुकूल परिणाम ही पैदा करवाता है । , संसार में रही हुए सम्यग्दृष्टि आत्माएँ रागादि दोषों की वृद्धि का कारण बनें वैसी भोग, युद्ध वगैरह की प्रवृत्ति करती हैं ऐसा बहुतबार देखने को मिलता है। वैसी प्रवृत्ति प्रायः निकाचित् कर्म के उदय के कारण होती है । परन्तु तब भी इन आत्माओं की मनोदशा जगत् के जीवों से न्यारी ही होती है । वे भोग को रोग मानती हैं । युद्धादि की क्रिया भी वे औचित्य के पालन के लिए ही करते हैं । इसलिए ऐसी क्रिया करते हुए भी वे भव्यात्माएँ कर्म तो नहीं बांधती, परन्तु पूर्व में बांधे हुए निकाचित कर्मों का नाश करती हैं । इसलिए ही महामहोपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने अध्यात्मसार नाम के ग्रंथरत्न में कहा है कि, विषयाणां ततो बंध - जनने नियमो ऽस्ति न । अज्ञानिनां ततो बन्धो-ज्ञानिनां तु न कर्हिचित् । सेवते सेवमानोऽपि, सेवमानो न सेवते । अध्यात्मसार-५ः२४-२५ विषयों के भोग से कर्मबंध की प्राप्ति हो ही वैसा कोई एकांत7 नियम नहीं है; क्योंकि अज्ञानी आत्माएँ जिन विषयों के भोग से कर्मबंध करती हैं, उन्हीं विषयों के भोग से ज्ञानी पुरुष कर्मनाश करते हैं । I 7. ये बात निश्चयनय की अपेक्षा से है । निश्चयनय पाँचों इन्द्रियों के विषय को कर्मबंध का कारण नहीं मानता, परन्तु विषय के उपभोग काल में होनेवाले रागादि के परिणाम कर्मबंध का कारण है, ऐसा मानता है । जड़ पदार्थों को अपने से भिन्न माननेवाले परम विवेकी ज्ञानी पुरुष कर्मोदय से कदाचित् विषयों में प्रवृत्ति करें, तो भी उससे रंजित नहीं होते । इसीलिए ऐसे अनासक्त पुरुष के लिए विषयों का भोग कर्मबंध का कारण नहीं बनता । जब कि व्यवहार तय की अपेक्षा से पाँचों इन्द्रिय के विषय कर्मबंध का कारण बनते हैं क्योंकि, ज्यादातर विवेक विहीन अज्ञानी पुरुष ही विषय के उपभोग में रागादि भाव करते हैं और उससे उसे कर्मबंध भी होता है । इसीलिए बहुलता को नज़र में रखते हुए व्यवहार नय से विषयों को भी कर्मबंध का कारण माना गया हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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