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उवसग्गहरं सूत्र इष्ट सुख दे सकते हैं । जब कि सम्यग्दर्शन तो पुण्यानुबंधी पुण्य के सृजन द्वारा जब तक मोक्ष सुख प्राप्त न हो, तब तक अनेक भवों में भव्यात्मा को उत्तम भोग की सामग्री तो प्राप्त करवाता ही है । साथ ही साथ श्रेष्ठ सामग्री में भी आसक्ति वगैरह संक्लिष्ट भावों से जीव को दूर रखता है तथा उज्ज्वल परिणाम प्रगट करता है और औदार्यादि गुणों की वृद्धि करके अंत में मोक्ष तक पहुँचाने में सहायक बनता है । ..
पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं - जीव निर्विघ्नता से अजरामर स्थान को प्राप्त करता है ।
चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक महिमा वाला सम्यग्दर्शन आत्मा को जब प्राप्त होता है, तब वह किसी भी प्रकार के विघ्न के बिना अजर-अमर स्थान को अर्थात् जहाँ वृद्धावस्था या मृत्यु नहीं है, ऐसे मुक्तिरूपी स्थान को प्राप्त करता है ।
एक बार यह सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त होने के बाद उसे टिकाकर रखनेवाले को मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती । मोक्षमार्ग में विघ्न करनेवाला मिथ्यात्व मोहनीय कर्म है। सम्यग्दर्शन के काल में इस कर्म का उदय हो नहीं सकता । अतः सम्यग्दृष्टि साधक जब तक मुक्ति को प्राप्त नहीं करते, तब तक संसार में भी उनको देव या मनुष्य के भव में जिनधर्म की प्राप्ति, सद्गुरु का योग, धर्मश्रवणेच्छा तथा धर्मकार्य करने के लिए आवश्यक अनुकूलताएँ मिलती ही रहती हैं । मुक्ति की प्राप्ति में विघ्नकारक कोई संयोग उन्हें प्राप्त नहीं होता। फलतः मोक्षमार्ग पर उनका अविरत प्रयाण चालू ही रहता है ।
जिज्ञासा : सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद भी उससे पतन और चौदहपूर्वी का निगोदगमन तो शास्त्र में सुना है, तो सम्यक्त्व को अविघ्न से मोक्ष का कारण किस प्रकार कहा जाता है ?
तृप्ति : सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद सामान्य से ऐसा नियम है कि सम्यग्दृष्टि जीव को कोई विघ्न नहीं आता; फिर भी सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद विघ्न आएँ, ऐसा जो सुनने को मिलता है, वह सम्यक्त्व प्राप्त होने से