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________________ उवसग्गहरं सूत्र १६५ जो आत्माएँ पार्श्वनाथ भगवान को विशिष्ट भावपूर्वक प्रणाम करती हैं, वैसी लघुकर्मी आत्माएँ तो उस भव में ही मोक्ष के सुख को प्राप्त करती हैं, कर्म की बहुलता के कारण कदाचित् उन आत्माओं को, उसी भव में मोक्ष न मिले, तो भी पार्श्वनाथ प्रभु को भावपूर्वक प्रणाम करने मात्र से उन्हें ऐसा विशिष्ट पुण्य बंध होता है, जिसके कारण महाऋद्धि, समृद्धि से युक्त देवादि भवों की प्राप्ति होती है और प्रभु कृपा से मिली रिद्धि-सिद्धि में भी उन्हें ऐसी आसक्ति नहीं होती, जिससे भव की परंपरा बढ़े । कदाचित् परमात्मा को प्रणाम करने के पूर्व यदि किसी जीव ने मनुष्य या तिर्यंच का आयुष्य बांधा हो, तो उसे मनुष्य या तिर्यंच के भव में उत्पन्न तो होना ही पड़ता है, परन्तु उस भव में भी उसको अन्य मनुष्य-तिर्यंच जैसे दुःख सहन नहीं करने पड़ते । सामान्य से तो मनुष्य या तिर्यंच का भव दुःख बहुल होने की संभावना है, फिर भी पार्श्वनाथ भगवान को प्रणाम करने के द्वारा पुण्य की प्राप्ति और पाप के अनुबंध शिथिल होने से उसे मनुष्य-तिर्यंच के भव में भी दुःख या दरिद्रता नहीं आती । नर तिरिएसु वि में जो वि=अपि है, उससे यह अर्थ निकलता है कि ऐसे तो मनुष्य या तिर्यंच का भव दुःख से भरपूर है, उसमें दुःख न आए, वह संभव नहीं है फिर भी पार्श्वनाथ भगवान के प्रणाम का प्रभाव ऐसा है कि वहाँ भी जीव को दुःख या दौर्गत्य (दारिद्रता-निर्धनतादि) की प्राप्ति नहीं होती । जिज्ञासा : नर तिरिएसु शब्द द्वारा मनुष्य और तिर्यंच गति में दुःखदौर्गत्य प्राप्त नहीं होता, ऐसा कहा, परन्तु नरकगति में दुःख नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं कहा ? तृप्ति : मनुष्य-तिर्यंच के भव ऐसे हैं, जहाँ दुःख न हो ऐसा भी हो सकता है । जन्म लेने के बाद शालिभद्र जैसे भाग्यवान पुरुष आजीवन सुखी हो सकते हैं । तिर्यंच में भी राजभवन में रहनेवाले हाथी, घोड़े आदि के भव में सुख की संभावना है, परन्तु नरक का भव तो संपूर्ण दुःखमय है,
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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