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सूत्र संवेदना - २
का सामर्थ्य कैसा विशिष्ट है, वह बताया है । रोगादि के समय में अगर समाधि न टिकती हो तो असमाधिकारक इन रोगादि के निवारण के लिए मंत्र जाप की इच्छा रखनी भी गलत नहीं है क्योंकि, रोग सहन करने मात्र से कर्म का क्षय नहीं होता, कर्म का क्षय तो समाधिपूर्वक रोग सहन करने से होता है । यहाँ साधक का लक्ष्य मंत्र द्वारा सिर्फ रोग को दूर करने का नहीं होता, पर समाधि पाने का होता है ।
मंत्र साधना का फल बताया, परन्तु जो मंत्र साधना करने में समर्थ नहीं है, उसे क्या करना चाहिए ? इसलिए अब सर्वजन के लिए यथा सम्भव प्रणाम का क्या महत्त्व है, वह बताते हैं ।
चिट्ठउ दूरे मंतो तुज्झ पणामोऽवि बहुफलो होइ - (वह) मंत्र तो दूर रहा, आपको किया हुआ प्रणाम भी महान फलवाला है ।
पूर्व गाथा में मंत्र का माहात्म्य बताया; परन्तु मंत्र की साधना हर एक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । मंत्र की साधना तो महासात्त्विक और धैर्ययुक्त पुरुष ही कर सकता है और यह मंत्र साधना सब को फल दे, वैसा भी एकांत नहीं है । मंत्र की विधिपूर्वक आराधना करने वाली पुण्यवान आत्मा को मंत्र के अधिष्ठायक देव तत्काल फल देते हैं, जब कि अन्य को प्रयत्न से और विलंब से फल मिलता है । ऐसी मंत्र साधना के लिए विशेष सामर्थ्यवान आत्मा ही योग्य है, अन्य नहीं । तो फिर सर्वजन समुदाय के लिए पार्श्वनाथ भगवान किस प्रकार फलदायक हैं, यह बताते हुए स्तोत्रकार कहते हैं - ‘मंत्र की बात तो दूर रही, इस पार्श्वनाथ भगवान को सहृदय से किया गया प्रणाम मात्र भी सामान्य नहीं, परन्तु बहुत फलों को देनेवाला है ।'
नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्चं - (आपको प्रणाम करनेवाले) जीव, मनुष्य और तिर्यंच योनि में भी दुःख और दारिद्रय को प्राप्त नहीं करते ।'