________________
उवसग्गहरं सूत्र
१६१
मंगल-कल्लाण-आवासं - मंगल और कल्याण के स्थानभूत (परमात्मा को),
शुभ को लाए और अशुभ को खत्म करें, वह मंगल है और सुख को जो लाए - सुख को जो दें, वह कल्याण है ।
मंगल अर्थात् विपत्तियों का उपशमन और कल्याण का तात्पर्य है संपत्तियों का उत्कर्ष । पार्श्वनाथ भगवान ऐसे मंगल और कल्याण के आधारस्थम्भ हैं, इसलिए उनके दर्शन, वंदन या उनकी सेवा करनेवाली आत्माएँ भी मंगल और कल्याण का पात्र बनती हैं । परमात्मा के वचनानुसार जीवन जीने से ही जीव का कल्याण होता है । इस शब्द से प्रभु का वचनातिशय भी प्रदर्शित होता है । इस विशेषण द्वारा बताया गया है कि, जिन्हें ज़हर आदि का बाह्य उपद्रव नहीं है, उनके लिए भी ये भगवान मंगल और कल्याण करनेवाले हैं, इसलिए मंगल और कल्याण की कामना करनेवालों को भी इस भगवान की भक्ति अवश्य करनी चाहिए ।
पासं वंदामि - ऐसे पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदन करता हूँ । यह शब्द बोलते समय साधक आत्मा को चार विशेषणों से युक्त परमात्मा नजर के समक्ष आने चाहिए और होना चाहिए कि
“मोक्ष की साधना आसान नहीं है, विजों से भरी हुई है, तो भी पार्श्वनाथ भगवान की भक्ति करने से संतुष्ट हुए पार्श्वयक्ष अवश्य मेरे विघ्नों का विनाश करेंगे, इसलिए उनकी भक्ति में तो जुड़ना ही है और जैसे भगवान संपूर्ण कर्म से मुक्त हुए हैं, उनका ध्यान करके मुझे भी उनकी तरह सब कर्मों से मुक्त होना है । यही मेरा साध्य है । इस साध्य को सिद्ध करते हुए बाह्य-आभ्यंतर अनेक विघ्न आनेवाले हैं, परन्तु जिनके स्मरण मात्र से विषधर के विष का नाश होता है, ऐसे अचिंत्य सामर्थ्यवाले तथा मंगल और कल्याण के स्थानभूत पार्श्वनाथ भगवान ही मेरे सभी विघ्नों का विनाश करके मुझे सर्व कल्याण की प्राप्ति करवानेवाले हैं ।