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________________ उवसग्गहरं सूत्र १५९ सेवा में हैं, ऐसे पार्श्वनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ' ऐसा अर्थ प्राप्त होता है अथवा पहले पासं शब्द का अर्थ समीपम् करें तो उपसर्ग को दूर करनेवाला सामीप्य-सान्निध्य है जिनका ऐसे पार्श्वनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ । यहाँ उपसर्गहर यह विशेषण पार्श्वनाथ भगवान के लिए प्रयोग न कर पार्श्वयक्ष के लिए प्रयोग किया गया है। उससे यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि, जिनके भक्त में भी ऐसी शक्ति है, उन भगवान में कितनी शक्ति होगी! इसके अतिरिक्त, देव भी परमात्मा के भक्त हैं, ऐसे उल्लेख द्वारा परमात्मा का पूजा-अतिशय सूचित किया गया है। कल्याणार्थी आत्माएँ समझती हैं कि - "श्रेयांसि हि बहु विघ्नानि भवन्ति" - कल्याणकारी धर्म की साधना में सैंकडों विघ्न आने की संभावना रहती है और अपना ऐसा सत्त्व नहीं है कि, उपसर्ग या परिषह रूप विघ्न के तूफान के बीच में भी हम धर्म में स्थिर रह सकें, इसीलिए स्थिरतापूर्वक धर्म के मार्ग में आगे बढ़ना हो, तो धर्म में आनेवाले विघ्न को रोकने के लिए पार्श्वनाथ परमात्मा की असीम भक्ति करनी चाहिए क्योंकि, पार्श्वनाथ भगवान की अत्यंत भक्ति करने से उनके प्रति भक्ति भाववाले पार्श्वयक्ष विघ्नों का जरूर निवारण करते हैं । ऐसे विचार से वे आत्माएँ पार्श्वनाथ भगवान के प्रति अत्यंत भक्तिवाली बनती हैं। इस तरह पार्श्वयक्ष के लिए प्रयोग किया हुआ, यह विशेषण सार्थक ही है । कम्मघणमुक्की - घनकर्म से मुक्त हए (पार्श्वनाथ) भगवान को ।। 4. पहली व्युत्पत्ति में कर्मों को मेघ की उपमा दी गई है और यहाँ पार्श्वनाथ भगवान की आत्मा को चन्द्र की उपमा देकर इन कर्मों ने उनको आच्छादित किया था । परन्तु अब उनसे भगवान मुक्त हो गए है, ऐसा बताया गया है । कर्माणि ज्ञानावरणीयाधष्ट तानि जीवचन्द्रमसो ज्ञानांशुमण्डलाच्छादकत्वात् घना इव जलदा इव कर्मघनाः । दूसरी व्युत्पत्ति में 'घन' का अर्थ दीर्घकाल पर्यंत रहनेवाले अथवा ज्यादा प्रदेश वाले ऐसा करके घातिकों को 'घन शब्द से अभिप्रेत किया है । घनानि दीर्घकालस्थितिकानि बहुप्रदेशाग्राणि वा यानि घातिकर्माणि तैमुक्तं त्यक्तम् ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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