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सूत्र संवेदना - २
चिंतामणि-कप्पपायवब्भहिए तुह सम्मत्ते लद्धे । जीवा अविग्घेणं अयरामरं ठाणं पावंति ।।४।। चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके तव सम्यक्त्वे लब्धे ।
जीवा: अविघ्नेन अजरामरं स्थानं प्राप्नुवन्ति ।।४।। चिंतामणि (रत्न) और कल्पवृक्ष से अधिक ऐसा तुम्हारा सम्यक्त्व प्राप्त होने से जीव निर्विघ्नता से अजरामर स्थान को प्राप्त करते हैं ।।४।।
महायस ! भत्ति-भर-निन्भरेण हियएण इअ संथुओ । ता देव ! जिणचंद ! पास ! भवे भवे बोहिं दिज ।।५।। (हे) महायश: ! भक्ति-भर-निर्भरण हृदयेन इति (मया) संस्तुतः ।
तस्मात् (हे) देव ! जिनचन्द्र ! पार्श्व ! भवे भवे बोधिं देहि ।।५।। हे महायशस्वी ! मैने संपूर्ण भक्ति भाव से भरे हृदय द्वारा आपकी स्तुति की है, इसलिए हे देव ! जिनों में चंद्र समान श्री पार्श्वनाथ भगवंत! (मुझे) जन्मोजन्म जिनधर्म की प्राप्ति रूप बोधि दें।।५।। विशेषार्थ :
उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि- उपसर्ग का नाश करनेवाला पार्श्व नाम का यक्ष जिनके पास है, वैसे पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदन करता हूँ।
देव, मनुष्य या तिर्यंच संबंधी उपद्रव उपसर्ग कहलाते हैं। उपसर्ग को जो दूर करे, उसे 'उवसग्गहर' कहते हैं । "उवसग्गहरं" शब्द “पासं" शब्द का विशेषण है। पार्श्वनाथ भगवान के अधिष्ठायक पार्श्वयक्ष पार्श्वनाथ भगवान के प्रति अनन्य भक्तिभाववाले हैं । इसलिए 'ये प्रभु दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं, वे ही मेरे सुख के कारण हैं' - ऐसा मानकर जो लोग पार्श्व प्रभु की भक्ति, आदर, सत्कार करते हैं, उनके देवादि कृत उपसों को दूर करने का कार्य पार्श्वयक्ष करते हैं। इसलिए पार्श्वयक्ष को ‘उवसग्गहरं' - उपसर्गों को नाश करनेवाले कहा गया है ।
"उवसग्गहरं पासं" यह सामासिक पद ‘पासं' अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान का विशेषण है । पूरे पद का ‘उपसर्ग को हरनेवाले ऐसे पार्श्व यक्ष जिनकी