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जावंत के वि साहू सूत्र
१५१ सभी मनुष्यों को मन, वचन और काया रूप तीन शक्तियाँ तो मिलती हैं । पर ज्ञानी पुरुष इन तीन शक्तियों का सदुपयोग साधना क्षेत्र में करके
आत्मा के अनंत आनंद को प्राप्त करते हैं जबकि, अज्ञानी जीव काल्पनिक सुखों के पीछे, इन्द्रियों की तृप्ति के लिए और आत्मा से भिन्न शरीर आदि के श्रृंगार के पीछे इन शक्तियों का दुरुपयोग करके, इन शक्तियों द्वारा दुरंत संसार का सृजन करते हैं। इस तरह महान पुण्योदय से प्राप्त हुए इन योगों को संसारी दंड स्वरूप बनाते हैं ।
अनंतकाल से अज्ञान के कारण हमें कैसे-कैसे दुःख भुगतने पड़े हैं, वह शास्त्र के माध्यम से मनि भगवंत जानते हैं और इसी कारण वे संसार एवं संसार के सुखों के प्रति सदा उदासीन रहते हैं। वे समझते हैं कि मन, वचन और काया के स्वैच्छिक प्रवर्तन से खुद को ही दंडित होना पड़ेगा । इसलिए वे मन, वचन, काया का स्वैच्छिक प्रवर्तन रोककर उसे परमात्मा के वचनानुसार प्रवर्तित करते हैं । परमात्मा के वचनों को समझने के लिए शास्त्र का अध्ययन करते हैं । शास्त्र की पूरी जानकारी प्राप्त न हो, तब तक गीतार्थ गुरु भगवंत को परतंत्र होकर जीते हैं अर्थात् उनकी निश्रा में विचरण करते हैं क्योंकि, वे जानते हैं कि, भगवद् वचन के विरुद्ध लेश भी प्रवृत्ति हो जाए, तो अवश्य कर्मबंध होगा और कर्म को भुगतते समय भी दुःख भुगतना पड़ेगा। इसी कारण संसार से अत्यंत भयभीत हुए मुनि भगवंत जब तक गीतार्थ न बनें, तब तक शास्त्रज्ञ पुरुष की शरण में रहते हैं। उनके वचनानुसार समिति-गुप्ति में प्रयत्न करते हैं और शरीर के धर्म भी अनासक्त भाव से करते हैं । ऐसे मुनि तीन दंड से विराम पाए हुए कहलाते हैं।
यह सूत्र बोलते हुए तीन दंड से विराम पाए हुए, भगवान के वचन के अनुसार जीवन जीनेवाले मुनि भगवंतों को नज़र के समक्ष लाकर-गुणवान गुरु भगवंतों के प्रति पूज्य भाव धारण करके, ऐसे गुरु भगवंतों को मैं नमन करता हूँ; वैसे वचन बोलकर और काया को नमस्कार करने योग्य मुद्रा में स्थिर करके मैं इन साधु भगवंतों को नमस्कार करता हूँ, वैसा भाव व्यक्त करना है।