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________________ नमोत्थुणं सूत्र १४१ नामोंनिशान भी नहीं है क्योंकि बाह्य अथवा अंतरंग किसी भी प्रकार का उपद्रव कर्म से ही आता है । सिद्धात्मा सर्वथा कर्म से रहित है, इसलिए उनका स्थान निरुपद्रव है । अचलः संसार में कोई स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ बाह्य या अंतरंग रीति से स्थिर रहा जा सकें, जब कि सिद्धिगति कभी चलायमान न होनेवाली अचल है। अरुजः जहाँ शरीर है, वहाँ रोग होने की संभवाना है । सिद्धावस्था में (सड़न, पड़न आदि स्वभाववाला) शरीर ही नहीं होता, इसलिए वहाँ रोग भी नहीं होता । अतः सिद्धिगति निरोगी अवस्थावाली गति है । अनंतः अनादिकाल से संसार के सुख या दुःख सब भाव अंतवाले हैं, जब कि सिद्धिगति को पाए हुए सर्व आत्माओं के ज्ञानादि गुण अनंत हैं, उनको प्राप्त हुआ अव्याबाध सुख अनंत हैं एवं उनको अनंतकाल तक वहाँ ही रहना है, इसलिए सिद्धिगति अनंत है अर्थात् इस गति का कभी अंत नहीं होता । अक्षयः संसार के दिव्य सुख भी नश्वर हैं - नाशवंत हैं, सदास्थायी नहीं है, परन्तु सिद्धिगति आत्मा की शुद्ध अवस्था स्वरूप है । स्वभावभूत ऐसी अवस्था प्राप्त होने के बाद वह फिर कभी नाश नहीं होती, इसलिए वह अक्षय है । अव्याबाधः शरीर व कर्म के साथ आत्मा जहाँ तक जुड़ी हुई है, वहाँ तक कर्म के कारण शारीरिक व मानसिक अनेक प्रकार की पीडाएँ सतत होती रहती हैं, परन्तु सिद्धिगति में पीड़ा देनेवाले शरीर, मन या कर्म कुछ भी नहीं है, मात्र अमूर्त आत्मा है । अमूर्तत्व होने से ही वहाँ कोई बाधा नहीं हो । 1 अपुनरावृत्तिः संसार में जितने स्थान है, उन स्थानों में पुनः पुनः जीव परिभ्रमण करते रहते हैं । मोक्ष में गए हुए जीवों को पुनः संसार में आना नहीं पड़ता, पुनः जन्म लेना नहीं पड़ता, वे वहाँ ही अनंतकाल तक स्वगुण में ही आनन्द करते हैं, इसलिए, सिद्धिगति अपुनरावृत्ति गुणयुक्त है । ऐसी सिद्धिगति नाम के स्थान को परमात्मा प्राप्त करते हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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