________________
१४०
सूत्र संवेदना - २
इसका उल्लेख किया है अर्थात् तीर्थंकर अवस्था में एवं सिद्धावस्था में दोनों अवस्थाओं में ये गुण होते हैं, ऐसा बताया ।
सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं-संपत्ताणं (नमोऽत्थु णं) - शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध एवं जहाँ से पुनरागमन न हो, ऐसी सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किए हुए परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो।) ___ अब ये (सिद्ध हुए) अरिहंत भगवंत सिद्ध होने के बाद सदाकाल कैसे स्थान में रहते है, यह बताते हैं - अरिहंत परमात्मा सब कर्मों का क्षय करके जिस स्थान में जाते हैं, उस स्थान को सिद्धगति (मोक्ष) कहते हैं । व्यवहारनय की दृष्टि से अरिहंत भगवान सिद्ध होने के बाद सिद्धशिला के ऊपर रहते हैं एवं निश्चयनय (समभिरुढ़) की दृष्टि से सिद्ध की आत्मा अपनी आत्मा में ही रहती है अर्थात् वे स्वगुण में आनंद मानते हैं, इसलिए सिवमयलादि विशेषण अरिहंत परमात्मा में लागू पड़ते हैं ।
'सिव-मयल' आदि विशेषण सिद्ध हुए अरिहंत भगवंत के हैं, तो भी व्यवहारनय से स्थान एवं स्थानी का अभेद करके यहाँ ये विशेषण सिद्धिगति के बताये हैं । जैसे जिस नगर के लोग उदार, गंभीर आदि गुणों से युक्त होते हैं, वह नगरी गुणशाली कहलाती है । वैसे ही शिव, अचल आदि गुणयुक्त सिद्ध की आत्मा जिस स्थान में रहती है, उस स्थान को भी व्यवहार से शिवादि गुणयुक्त कहते हैं । __ अनंतकाल से संसारी जीव जो चार गतिरूप संसार में रहते हैं वह स्थान सिद्धगति की अपेक्षा से पूर्ण विरोधवाला अशिव-उपद्रवों से भरा हुआ है । इन दोनों स्थानों की तुलना करें, तो सिद्धगति के प्रति आदर अत्यंत बढ़ जाता है तथा उपद्रवादि से खिन्न होकर निरुपद्रवादि वाले स्थान को प्राप्त करने की अभिलाषा एवं प्रवृत्ति होती है । शिवः संपूर्ण संसार उपद्रवों से भरा है, जब कि सिद्धिगति में उपद्रवों का