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नमोत्थुणं सूत्र
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सामान्य बोध स्वरूप है । वैसे तो पदार्थ के विशेष बोध में सामान्य बोध का समावेश हो ही जाता है । इसलिए भगवान को मात्र 'वरनाणधराणं' कहा होता तो भी चल सकता था । फिर भी जगद्वर्ती तमाम पदार्थ सामान्य एवं विशेष दोनों धर्म से युक्त हैं, इसलिए, ज्ञेय में (वस्तु में) दोनों धर्म होने से विशेष धर्म को जाननेवाले ज्ञान एवं सामान्य धर्म को जाननेवाले दर्शन गुण से युक्त परमात्मा हैं - ऐसा कहा है ।
यह पद बोलते हुए विशिष्ट प्रकार की साधना करके, केवलज्ञान एवं केवलदर्शन गुणों को प्राप्त करनेवाले परमात्मा को याद करके, नमस्कार करते हुए, प्रभु के सामने प्रार्थना करें कि -
'हे नाथ ! आपने जिस प्रकार साधना द्वारा कर्म के आवरण को हटाकर केवलज्ञान एवं केवलदर्शन का प्रकाश प्राप्त किया, वैसे ही आपको किया हुआ यह नमस्कार हमारे लिए भी केवलज्ञानादि गुणों का अमोघ कारण बने ।' केवलज्ञान - केवलदर्शन छद्मस्थता के नाश के बिना सम्भव नहीं है । इसलिए अब उसका वर्णन करते हैं ।
वियट्ट-छउमाणं (नमोऽत्थु णं) - व्यावृत छद्मवाले (जिनके घातिकर्म निवृत हुए हैं वैसे) परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) ।
जो आच्छादित करे, ढंके उसे छद्म कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मगुणों को ढंकनेवाले घातिकर्म ही छद्म हैं । दोष को भी छद्म कहते हैं और दोष वाली अवस्था को छद्मस्थता कहते है ।
जिनके घातिकर्म सर्वथा नष्ट हो गए हैं, वे भगवान ही व्यावृत छद्मवाले हैं । ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को ढंकता है, दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन गुण को ढंकता है, मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यग्दर्शन एवं अनंत चारित्र गुण को ढंकता है, और अंतराय कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य गुण को ढंकता हैं । दूसरी तरह से विचार