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________________ १३४ सूत्र संवेदना - २ चारित्र धर्म रूपी चक्र के स्वामी बनकर चारों गतियों का अंत करनेवाले बनें ।” चारित्रधर्म का प्रदान करने द्वारा विशेष उपकार करनेवाले अरिहंत भगवान कैसे स्वरूप में रहे हुए हैं, वह बताते हुए साँतवीं 'सकारण स्वरूप संपदा' कहते हैं । अप्पडिहय-वर-नाण- दंसण-धराणं ( नमोऽत्यु णं) नाश न हो, ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान एवं दर्शन के धारक परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।) समग्र घातिकर्मों का नाश करके परमात्मा ने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को प्राप्त किया है । ज्ञान जीव का स्वभाव है। इसलिए, सभी जीवों में ज्ञान गुण तो होता ही है; परन्तु कर्मों का आवरण होने से वह गुण किसी में कम या किसी में ज्यादा प्रकट होता हैं । इसीलिए संसारी जीव जगद्वर्ती सब पदार्थों को देख भी नहीं सकता और कभी कर्म से आवरित वह ज्ञान संसारी जीव को कहीं स्खलित भी करता है । अरिहंत परमात्मा ने साधना करके ज्ञान एवं दर्शन गुण को आवृत्त करनेवाले घातिकर्मों का सर्वथा नाश करके, कभी नष्ट न होनेवाले अप्रतिहत ज्ञान को प्राप्त किया है । इसलिए, वे किसी भी प्रकार की स्खलना के बिना एक ही समय में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देख सकते हैं एवं जान सकते हैं । परमात्मा को प्राप्त हुआ ज्ञान जैसे अप्रतिहत है, वैसे श्रेष्ठ भी है क्योंकि ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा नाश से उनमें केवलज्ञान एवं केवलदर्शन गुण प्रगट हुए हैं, जिसके द्वारा वे जगद्वर्ती सब पदार्थों का यथार्थ स्वरूप देख सकते हैं, जान सकते हैं और इस गुण के कारण ही अनंत लब्धि एवं अनंत सिद्धियाँ प्रगट होती हैं । ऐसे अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान एवं केवलदर्शन गुण को धारण करनेवाले परमात्मा को इस पद द्वारा हमें नमस्कार करना है । यहाँ परमात्मा को ज्ञान एवं दर्शन दोनों गुणों से युक्त कहा । इसका कारण यह है कि ज्ञान पदार्थ के विशेष बोध स्वरूप है एवं दर्शन पदार्थ के
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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