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________________ नमोत्थुणं सूत्र १३३ अर्थात् अपुनर्बंधक अवस्था, इस दशा में स्वीकार की हुई द्रव्य विरति भी कल्याण का कारण बनती है । धर्म का मध्यम भाग अर्थात् सम्यग्दर्शन की अवस्था, इस अवस्था के काल में स्वीकार किए हुए व्रत-नियम भी आत्मशुद्धि का कारण बनते हैं एवं धर्म का अंतिम भाग अर्थात् - सर्व संवरभाव का चारित्र वह तो अवश्य मोक्ष का कारण बनता है, इसलिए, यह धर्मरूप चक्र ही जगत में श्रेष्ठ है एवं इस श्रेष्ठ चक्र को धारण करनेवाले परमात्मा ही श्रेष्ठ चातुरंग - चक्रवर्ती हैं । इसके अलावा, इन चार गतियों का अंत दान, शील, तप एवं भावरूप चार प्रकार के धर्म से भी होता है। तात्त्विक कोटि के दानधर्म से ही धनादि की महामूर्च्छारूप अति रौद्र महामिथ्यात्व का नाश होता है । शील के पालन से संयम गुण प्रकट होते ही अविरति जनित कर्मों का रोध होता है । तपधर्म से मन एवं इन्द्रियों का संयम होने से कर्म का नाश होता है एवं भावधर्म के पालन से परभाव - पौद्गलिक भाव दूर होने पर आत्मभाव में स्थिरता आती है । इस तरह चार प्रकार के धर्म द्वारा अंतरंग शत्रुओं का विनाश होता है । ऐसे श्रेष्ठ दान, शील, तप एवं भाव धर्म के स्वामी परमात्मा ही श्रेष्ठ धर्म के परमोत्कृष्ट चक्रवर्ती हैं । यह पद बोलते हुए श्रेष्ठ धर्मरूपी चक्र द्वारा चारों गतियों का नाश करनेवाले परमात्मा को हृदयस्थ करके प्रणाम करते हुए प्रार्थना करें कि “हे नाथ ! आपको किए हुए इस नमस्कार से हम भी इस श्रेष्ठ काटने पर अंदर से भी अगर वह शुद्ध हो, तो उसे छेद परीक्षा में उत्तीर्ण कहा जाता है; वैसे जिस शास्त्र में बताए गए बाह्य आचार-अनुष्ठान उसमें बताए गए विधि-निषेध के अनुकूल हों, वह शास्त्र छेद- परीक्षा शुद्ध कहलाते हैं । 1 (क) ताप - परीक्षा - शुद्ध : जैसे संपूर्ण शुद्धि जानने के लिए अग्नि के ताप में पिघालने से अगर सोना थोड़ा भी न बदले परन्तु ज्यादा तेजस्वी बने, तो सोना ताप - परीक्षा में शुद्ध कहलाता है। वैसे ही जो धर्म में पूर्वोक्त दोनों शुद्धि के साथ जीवादि - तत्त्व इस प्रकार कहे हों कि जिनके कारण बंध-मोक्ष आदि यथार्थ तरीके से संगत हो सके, वहधर्म शास्त्र ताप - परीक्षा में शुद्ध कहलाता हैं । जो धर्म इन तीनों परीक्षा से शुद्ध हो, वहीं सच्चा धर्म कहलाता है । 1
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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