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सूत्र संवेदना - २ चारित्रधर्म ही श्रेष्ठ चक्र है । चक्रवर्ती का चक्ररत्न जिस प्रकार शत्रु का विनाश करके, चक्रवर्ती को छ: खंड का स्वामी बनाने में सहायक बनता है, उसी प्रकार चारित्रधर्म भी अंतरंग शत्रुओं का विनाश करके, चार गति के परिभ्रमण की पराधीनता दूर करके आत्मा को अनंत ज्ञानादि गुण संपत्ति का स्वामी बनाता है । इसलिए परमात्मा चारों गतियों का अंत करनेवाले चातुरंत चक्रवर्ती कहलाते हैं ।
यद्यपि चार गतियाँ तो शाश्वती हैं, नित्य रहनेवाली हैं, तो भी जिनके अंतर में चारित्रधर्म का परिणाम प्रकट होता है, वह आत्मा चार गतियों से बाहर निकल जाती है, इस प्रकार से वह आत्मा चार गतियों का अंत करनेवाली होती है ।
चक्रवर्ती का चक्र तो इस लोक में और वह भी पुण्य हो, तब तक ही साथ रहता है एवं अविवेकी आत्माओं के लिए परलोक में वह नरकादि दुर्गति के भयंकर दु:खों का कारण बनता है। चक्री का चक्र द्रव्य-भाव प्राण का घातक है, जब कि धर्मचक्र उभयप्राण का रक्षण करनेवाला है । धर्मरूपी चक्ररत्न इस लोक में भी सुख देता है एवं परलोक में भी सद्गति की परंपरा का सर्जन करके अंत में मोक्ष के अनंत सुखों को प्राप्त करवाता है । इसलिए चारित्रधर्म ही श्रेष्ठ चक्र है ।
यह चारित्रधर्म ही श्रेष्ठ है, क्योंकि यह त्रिकोटि परिशुद्ध है अर्थात् चारित्र के आद्य भाग, मध्य भार्ग एवं अंतिम भाग, तीनों भाग अविसंवादि हैं अथवा कष, छेद एवं ताप रूप त्रिकोटि से परिशुद्ध हैं । धर्म का आद्य भाग 57 त्रिकोटि परिशुद्ध याने कष-छेद-ताप परीक्षा से शुद्ध :
(अ) कष-परीक्षा शुद्ध : यह सुवर्ण असली है या नकली, उसके निश्चय के लिए उसे कसौटी के पत्थर के ऊपर घिसा जाता है । यदि योग्य रेखा आए, तो उस सुवर्ण को कष परीक्षा में शुद्ध गिना जाता है । वैसे ही जिन धर्मशास्त्रों में हिंसा, झूठ आदि पापस्थानों का निषेध और ध्यान, स्वाध्यावे, उप आदि सत्क्रिया का विधान मिले उन शास्त्रों को कष-परीक्षा से शुद्ध शास्त्र कहते हैं। (ब) छेद-परीक्षा शुद्ध : जैसे सोने की ज्यादा परीक्षा के लिए उसे छीनी से काटा जाता है और