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________________ नमोत्थुणं सूत्र १३१ उपदेशादि द्वारा अन्य को भी उन उन क्रियाओं में प्रवर्तन करवाते हैं । इस तरह संयम के अंगों का योग्यपालन करते एवं करवाते हुए प्रभु वास्तविक अर्थ में धर्म के सारथी हैं । दमन : रथ का पालन और प्रवर्तन करने के अलावा सारथि गलत मार्ग पर जाते हुए अश्वों का नियंत्रण करके, उन्हें सही मार्ग पर ले जाता है, उसी प्रकार आत्मधर्म से उन्मुख जाती इन्द्रियों एवं मन को बाह्य भावों से हटाकर उनको आत्मभाव में स्थिर करवानेवाले परमात्मा को धर्मरथ का सारथी कहते हैं । वरबोधि की प्राप्ति के बाद परमात्मा आत्मधर्म से विपरीत दौड़ते हुए मन एवं इन्द्रियों को रोककर आत्मधर्म के अभिमुख प्रवृत्त करते हैं तथा मन एवं इन्द्रियों के निग्रह में विघ्न करनेवाले चारित्र मोहनीय कर्म का नाश करके अंत में यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार वे इन्द्रिय आदि का दमन करनेवाले हैं और उपदेश द्वारा अन्य के मन- इन्द्रियों आदि का दमन करवानेवाले भी हैं । प्रवर्तन, पालन एवं दमन के योग से परमात्मा ही धर्म के सारथी हैं । यद्यपि दूसरी आत्माएँ भी चारित्रधर्म में प्रवर्तन, पालन एवं दमन तो करती हैं, तो भी धर्म के सारथी तो तीर्थंकर ही कहलाते हैं, क्योंकि वे खुद चारित्रधर्म में सक्रिय रहते हैं एवं अनेक आत्माओं को उपदेश द्वारा चारित्रधर्म में सक्रिय करते हैं । धर्म रथ के श्रेष्ठ सारथी परमात्मा को प्रणाम करते हुए प्रार्थना करें कि " हे नाथ ! आप हमारे धर्मरथ के सारथी बनकर हमें शीघ्र मोक्ष तक पहुँचाएँ । लौकिक व्यवहार में जिस प्रकार कहते हैं कि, श्री कृष्ण जिसके सारथी बनते हैं उनकी विजय में कोई शंका नहीं रहती। उसी तरह हे नाथ ! आप यदि मेरे धर्मसारथी बनेंगे तो भवपार करने में मुझे कोई शंका ही नहीं रहेगी ।" धम्म-वर-चाउरन्त-चक्कवट्टीणं ( नमोऽत्थु णं) चातुरंत चक्रवर्ती ऐसे परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) । - धर्म के श्रेष्ठ
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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