________________
सूत्र संवेदना - २
धम्म - सारहीणं ( नमोऽत्थु णं) - चारित्रधर्म के सारथी परमात्मा को ( मेरा नमस्कार हो) ।
१३०
जो रथ का सम्यक् प्रकार से प्रवर्तन, पालन एवं दमन (नियंत्रण) करता है, वह रथ का सारथी कहलाता है, वैसे ही जो स्व में एवं पर में संयमधर्म का प्रवर्तन, पालन एवं दमन करता है, वह संयमरथ का सारथी कहलाता है । अरिहंत भगवंत अपने में एवं अन्य में श्रेष्ठ कोटि के चारित्रधर्म का प्रवर्तन, पालन एवं दमन कर सकते हैं, इसलिए वे चारित्रधर्म के सारथी कहलाते हैं। परमात्मा सारथी बनकर धर्मरूपी रथ का प्रवर्तन, पालन एवं दमन किस तरह करते हैं, वह देखें -
प्रवर्तन : भगवान चारित्र का सम्यग् प्रवर्तन कर सकते हैं, उसका मूल कारण है उनका विशेष प्रकार का तथाभव्यत्व । ऐसा विशिष्ट तथाभव्यत्व जब नजदीक में ही मोक्ष प्राप्त करवानेवाला बनता है, तब परमात्मा की आत्मा आत्मभाव के अभिमुख बनती है, जिसके कारण वे अपुनर्बंधक अवस्था को प्राप्त करते हैं । यहीं से तात्त्विक धर्म की शुरुआत होती है। धर्ममार्ग में उत्तरोत्तर सम्यग् यत्न बढने से सच्चारित्र मार्ग में प्रवृत्ति करवानेवाला सम्यग् ज्ञान प्रकट होता है । ज्ञान से विरति की प्राप्ति होती है । विरतिधर्म के पालन से मोह का विनाश होता है एवं मोह के विनाश से प्रभु को क्षायिकभाव का चारित्र प्राप्त होता है, जो आत्मा का मूलभूत स्वभाव है। यह भाव प्राप्त होने पर परमात्मा अपनी आत्मा को संयमधर्म में उपादानभाव से प्रवृत्त करते हैं एवं अन्य की आत्मा को उपदेशादि द्वारा निमित्तभाव से संयममार्ग में जोड़ते हैं ।
पालन : जैसे रथ के सम्यग् प्रवर्तन का मूल कारण उसके अंगभूत अश्वादि का सम्बग् प्रकार से पालन / पोषण वगैरह है, वैसे ही अंतरंग भावचारित्र के प्रवर्तन का मूल कारण उसके अंगभूत महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि बाह्य क्रियाओं का सम्यग् पालन है । परमात्मा भावचारित्र के कारणभूत समिति, गुप्ति एवं महाव्रतों का यथायोग्य पालन करते हैं एवं