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________________ १३६ सूत्र संवेदना - २ करें तो दोष या रागादि कषाय छद्म है एवं जिनके कषाय सर्वथा नष्ट हो गए हों, वे भगवान ही व्यावृत्त छद्मवाले हैं । यह पद बोलते हुए जिनके समस्त दोष नष्ट हो गए हैं एवं जिनके वचन निशंक स्वीकार करने योग्य हैं एवं जो समस्त जगत के लिए पूजनीय हैं, ऐसे परमात्मा को हृदयस्थ करके प्रणाम करते हुए प्रार्थना करें - 'हे नाथ ! बहुमानपूर्वक आपको किया हुआ यह नमस्कार हमारे राग, द्वेष, अज्ञान आदि दोषों के नाश का कारण बने ।' इन दोनों पदों के द्वारा स्तोतव्य संपदा की "सकारण स्वरूप" संपदा कही गई । सकारण इसलिए कहीं है कि जब भगवान श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन को धारण करनेवाले होते हैं, तब ही स्तुति करने योग्य होते हैं एवं वर-ज्ञानदर्शन धारकता छद्मस्थता (छद्मस्थित भाव) गए बिना प्राप्त नहीं होती । अब आनेवाले पदों द्वारा भगवान ने जो फ़ल प्राप्त किया है, वही फल वे अपने भक्त को देते हैं, ऐसा बताते हुए " आत्म तुल्य-परफ़ल-कर्तृत्व” नाम की आठवीं संपदा कहते हैं - - - जिणाणं जावयाणं ( नमोऽत्थु णं) (अंतरंग शत्रुओं को) जीतनेवाले एवं जीतानेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) । इस संसार में प्राप्त होनेवाले जन्म, मरण, आधि, व्याधि आदि सर्व दुःखों का मूल कारण राग, द्वेष आदि अंतरंग शत्रु हैं । श्री तीर्थंकर देव ने इन शत्रुओं को स्वयं जीता है एवं सदुपदेश आदि द्वारा योग्य आत्माओं को इन कषायों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग बताकर सहायता भी की है। इसलिए वे अंतरंग शत्रु को जीतनेवाले एवं जीतानेवाले कहलाते हैं । जैनशासन में ईश्वरतत्त्व की यह महानता है कि वे उपासना करनेवाली आत्मा को अपने जैसा ही बनाते हैं । परमात्मा ने स्वयं तो रागादि पर विजय प्राप्त करने की सर्वश्रेष्ठ साधना की है; साथ ही अनेक योग्य आत्माओं को भी इन रागादि के जाल से मुक्त करवाकर अपने जैसा ही बनाया है, बनाते हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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