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________________ १२१ नमोत्थुणं सूत्र अभयादि भावों की प्राप्ति की योग्यता रूप ये औदार्यादि गुण संसार की निर्गुणता के भानपूर्वक होते हैं इसीलिए ये औदार्याद्रि गुण धीरे-धीरे वैषयिक सुख की आसक्ति को घटाकर, वैराग्यादि गुणों को प्रकट करके, विशिष्ट प्रकार के चारित्रादि गुणों को प्राप्त करवाकर आत्मिक आनंद का अनुभव करवाते हैं । यह पद बोलते ही कल्याण के अद्वितीय कारणभूत सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त करवानेवाले अरिहंत परमात्मा को दृष्टि के समक्ष लाकर, उनके इन महान उपकार को याद करके, अंतर के भावों से नमस्कार करके परमात्मा के पास प्रार्थना करें कि - “हे क्षायिक सम्यक्त्व के स्वामी ! अनादि मिथ्यात्व का संपूर्ण नाश करवाकर आप मुझे में भी क्षायिक भाव का सम्यग्दर्शन प्राप्त करवाएँ ।” अभयादि भावों का विविध प्रकार से विचार : आत्मिक विकास के लिए अभयादि पाँचों पद अति महत्त्वपूर्ण हैं । तात्त्विक धर्म प्राप्ति के ये पाँच सोपान हैं, इसलिए इन पाँच भावों को यथार्थ रूप में समझकर मुमुक्षु आत्मा को प्राथमिक कक्षा में इन पाँचों भावों की प्राप्ति के लिए ही यत्न करना चाहिए; क्योंकि इन पाँच भावों की प्राप्ति के बिना वास्तविक धर्म का प्रारंभ ही नहीं हो सकता ।। सांख्यमत के महर्षि गोपेन्द्र आदि के अनुसार ये पाँच भाव निम्नवत् हैं - धृति, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा एवं विज्ञप्ति। वे भी ऐसी मान्यता रखते हैं कि, निवृत्तप्रकृति अधिकारवाले पुरुष को ही ये भाव होते हैं। पृष्ट १२२ पर दी गई सारणी में इनको समझने के लिए इनके अलग अलग स्वरूप देख सकते हैं। 53.निवृत्त - प्रकृत्ति-अधिकार अर्थात् कर्म प्रकृत्ति का अधिकार जिस पुरुष के ऊपर से मंद हो गया हो, अर्थात् कर्म अब पुरुष का पराभव नहीं कर सकता हो। कर्म के आधीन होकर जो पुरुष नहीं चलता ऐसे पुरुष को ही इन भावों की प्राप्ति होती है, वैसा वे मानते हैं, जो हमें भी मान्य है।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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