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________________ १२० सूत्र संवेदना - २ भावामृत के आस्वाद तुल्य कहा है । यह लोकोत्तर अमृत के आस्वाद तुल्य जो योग्यता है, वह औदार्य आदि गुण स्वरूप है । जीव में अभयादि की योग्यता भी प्रकट हुई है कि नहीं, वह उसके औदार्य, दाक्षिण्य, पापजुगुप्सा, निर्मलबोध एवं जनप्रियत्व52 गणों से जाना जा सकता है । 52. १. औदार्य : अनादिकालीन तुच्छ वृत्ति का, क्षुद्र वृत्ति का त्याग कर हदय को विशाल बनाना औदार्य है । मैं और मेरा - इस वृत्ति को त्यागकर सभी को अपना मानना, अपनी सब शक्ति एवं सब सामग्री का सब के लिए सदुपयोग करने की भावना रखनी । सभी के प्रति औचित्यपूर्ण वर्तन करना । बड़ों के प्रति बहुमान, छोटों के प्रति वात्सल्य भाव रखना, दीनअनाथ या दुःख ग्रस्त जीवों के ऊपर दया रखना । ये सब भाव औदार्यगुण के कारण होते हैं, क्योंकि उदारता गुण प्रगटने से ही अन्य के दुःख का विचार आता है एवं अपने सुख को गौण कर सकते हैं । यह गुण ही रागादि को मंद करके आत्मिक आनंद देता है । २. दाक्षिण्य : सभी को अनुकूल रहने की भावना दाक्षिण्य है । इस गुण की प्राप्ति के लिए धीरता, स्थिरता, गंभीरता आदि गुणों को प्राप्त करने एवं ईर्ष्या आदि दोषों का त्याग करना ज़रूरी होता है । दूसरे को अनुकूल रहने का परिणाम स्व-इच्छा के आक्रमण को दूर करता है । अपनी इच्छा का सहजता से त्याग करनेवाली आत्मा ही वास्तविक आनंद पा सकती है । ३. पापजुगुप्सा : पाप के प्रति तिरस्कार अज्ञानादि दोषों के कारण कहीं भी पाप का सेवन हुआ हो, पूर्व भव में या इस भव में जो जो पाप किए हों, उन सब पापों का अंतःकरणपूर्वक प्रायश्चित्त करना पापजुगुप्सा है । यह पापजुगुप्सा का परिणाम लोकोत्तर भावामृत है, क्योंकि वह पापवृत्ति एवं पापप्रवृत्ति से आत्मा को दूर रखती है । पापवृत्ति एवं पापप्रवृत्ति अटकने से कर्मों का संवर तथा नाश होता है एवं आत्मा लोकोत्तर कोटि के गुणों का आनंद पा सकती है । ४. निर्मलबोध : स्वच्छ बोध । जो बोध दुःखकारक विषयों से दूर रखकर सुखकारक शास्त्र की ओर प्रवृत्ति करवाएँ, वह निर्मल बोध है । बोध निर्मल होने पर शास्त्र को जानने की जिज्ञासा जागृत होती है, शास्त्रज्ञ के पास जाने का मन होता है, शास्त्र श्रवण करके उस पर गहरा चिंतन होता है, सूक्ष्म सूक्ष्मतर तत्त्व का ज्ञान होता है जिसके कारण मिथ्यात्वादि कर्म शिथिल होते हैं, क्रोधादि कषाय शांत होते हैं, सम्यक्त्वादि गुण प्रगट होते हैं एवं उसी से निर्मल बोधवाली आत्मा लोकोत्तर आनंद को पा सकती है । ५. जनप्रियत्व : लोक को प्रिय होना । लोकचाहना पाना जनप्रियत्व है, परन्तु ये जनप्रियत्व निर्दोष होना चाहिए, किसी भी प्रकार के आशंसादि दोष से रहित होना चाहिए, मात्र आत्म कल्याण की भावना से किया हुआ औचित्यपूर्ण वर्तन अनेकों की प्रीति का कारण बनता है । इस गुणवाली आत्मा के अनुष्ठान, उसकी प्रत्येक क्रिया अनेक जीवों को धर्म की तरफ़ प्रेरित करती है, धर्म,बीज का आधान करती है एवं खुद में भी धर्मभाव की वृद्धि करवाकर अंत में मोक्ष तक पहुँचाती है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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