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नमोत्थुणं सूत्र
अपुनर्बंधक दशा में 51 योग की पहली दृष्टि में तत्त्व के प्रति द्वेष दूर होता है, जिसके कारण दूसरी दृष्टि में तत्त्व की जिज्ञासा प्रकट होती है, उसके बल से तीसरी दृष्टि में तत्त्व तत्त्व के बीच भेद करने का प्रयत्न होता है, जो चित्त के अवक्रगमनरूप योग की तीसरी दृष्टि है । फिर विविदिषा प्रकट होती है, जो योग की चौथी दृष्टि है । तत्त्व को जानने के प्रबल प्रयत्न से 'भगवान ने जो कहा है, वही सत्य है ऐसा निर्णय होता है, यही बोधि है, जो तत्त्व की श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन है, विज्ञप्ति है ।
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बोधि की प्राप्ति होने के बाद जीव को दृढ़ निर्णय होता है कि, सर्व कर्मरहित, रागादि उपद्रवों से रहित, ऐसी मेरी खुद की शुद्ध अवस्था है । आत्मा का यह शुद्ध स्वरूप ही सुखरूप है । उसे प्राप्त करने के लिए सतत रागादि को दूर करने का यत्न करना चाहिए । आत्मा के शुद्ध-सुखमय स्वरूप को पाने का उपाय सर्वज्ञ प्रणीत धर्म है । अरिहंत परमात्मा यही उपाय अपनाकर सिद्ध हुए हैं और उन्होंने यह उपाय हमें भी बताया है । इसलिए अरिहंत के बताए मार्ग पर चलने से ही मुक्ति की प्राप्ति होगी - मैं सुखी हो सकूँगा । सुख संबंधी ऐसी स्पष्ट और निर्मल दृष्टि की प्राप्ति ही बोधि की प्राप्ति स्वरूप है ।
अनादिकाल से संसार में भटकते - भटकते जीव जब अपुनर्बंधक अवस्था को प्राप्त करता है, तब उसे संसार की वास्तविकता का ज्ञान होने से विषय विष जैसे लगते हैं और तब उसमें अभयादि पाँचों भावों को प्राप्त करने की योग्यता प्रकट होती है । शास्त्र में इस योग्यता को लोकोत्तर अमृत के आस्वाद रूप कहा गया है क्योंकि, जीव इसी अवस्था में विषयों के उपभोग से भिन्न प्रकार के अतीन्द्रिय आंशिक सुख का आस्वाद भी कर सकता है । जैसे कभी भी शांत न होनेवाली प्यास अमृत से छिपती है, उसी प्रकार यहाँ प्राप्त होनेवाला उपशम का सुख जीव की अनादिकालीन असंतुष्ट विषयों की तृष्णा को शांत करता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने इस अवस्था को लोकोत्तर 51. पञ्चकमप्येतदपुनर्बन्धकस्य यथोदितस्य, अस्य पुनर्बन्धके स्वरूपेणाभावात् । इतरेतरफलमेतदिति नियमः, अनीदृशस्य तत्त्वायोगात् । नह्यचक्षुष्फलमभयं चक्षुर्वाऽमार्गफलम्.... इत्यादि ।
ललित विस्तरा
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