SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ सूत्र संवेदना - २ आत्मा आदि तत्वों के ऊपर श्रद्धा होने से जीव को अन्य जीव भी खुद के जैसे लगते हैं । खुद को जिस सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वैसी ही दूसरों को भी होती है, यह बात समझ में आती है । जिससे वह कषायों से ग्रस्त अपनी और अन्य जीवों की बाह्य-अंतरंग पीड़ा एवं व्यथा को समझ सकता है । दूसरों के दुःख देखकर स्वयं भी दुःखी होता है, उसे दूर करना चाहता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद साधक में स्व-पर के द्रव्य-भाव दुःख देखकर उसे दूर करने की इच्छारूप अनुकंपा (दया) का परिणाम प्रकट होता है । ___ अनुकंपा से द्रवित हृदयवाला साधक जब संसार की तरफ दृष्टि करता है, तब पूरा संसार और उसकी तमाम प्रवृत्तियाँ उसे स्व-पर की द्रव्य और भाव हिंसा से व्याप्त दिखाई देती हैं, यह देखकर उसे संसार के प्रति तिरस्कार होता है और ऐसे निर्गुण संसार से भाग छूटने की तीव्र इच्छारूप निर्वेद का परिणाम प्रकट होता है । निर्वेद का परिणाम होने के बाद जीव को अनंतकाल तक जहाँ अपने सुख की प्राप्ति होती है एवं जहाँ कभी हिंसा वगैरह नहीं करनी पड़ती, अपनी तरफ से कभी किसी को दुःख होता नहीं, वैसे मोक्ष की तीव्र अभिलाषा रूप संवेग का परिणाम होता है । संसार से अतीत मोक्ष की इच्छा होने पर जीव में क्रोधादि कषायों के उपद्रव एवं विषयों की तृष्णा के उपशम रूप प्रशम का परिणाम प्रकट होता है। बोधिप्राप्ति का क्रम : अभय की प्राप्ति से लेकर बोधि की प्राप्ति तक के पाँचों भाव एक दूसरे में कार्यकारण रूप हैं; इसीलिए जिस जीव को अभय की प्राप्ति होती है उसके उत्तरोत्तर फलस्वरूप50 अंतिम बोधि की प्राप्ति भी होती है। 50. योग्यता चाफलप्राप्तेस्तथाक्षयोपशमवृद्धिः, लोकोत्तरभावामृतास्वाद्पा वैमुख्यकारिणी विषयविषाभिलापस्य । न चेयमपुनर्बन्धकमन्तरेणेति भावनीयम् । लोकोत्तरभावा = विहितौदार्य्यदाक्षिण्यादयः । - ललित विस्तार
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy