________________
सूत्र संवेदना - २
जैसे सर्प अपने बिल में शरीर छिल जाने के भय से तिच्छी चाल को त्याग कर सीधा चलता है, वैसे ही चित्त की सरलता रूप मार्ग मिल जाने पर साधक भी मिथ्यात्व जन्य कदाग्रहों का, कुटिलताओं का एवं कुमान्यताओं का त्याग करके सच्चे सुख के मार्ग पर चलना शुरु करता है। इस मार्ग पर चलते हुए उसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का सानुबंध + 1 क्षयोपशम होता है । इस क्षयोपशम के कारण आगे बढ़ते हुए जीव को सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है । इसीलिए मार्ग प्राप्ति के परिणाम को विशिष्ट गुणस्थानक की प्राप्ति करवानेवाला क्षयोपशम कहा है ।
११०
इसके अतिरिक्त, प्राप्त हुआ यह मार्ग स्वरसवाही होता है । स्वरसवाही अर्थात् स्वेच्छा से ही मोक्षमार्ग में गमन करवाए वैसा मानसिक परिणाम अथवा स्व अर्थात् आत्मा का एवं रस अर्थात् लगाव = interest । यहाँ सुख को प्राप्त करवानेवाले अपने ज्ञानादि गुणों के प्रति आत्मा का लगाव पैदा होता है ।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय जीव को जहाँ सुख नहीं है, वहाँ सुख का भ्रम करवाकर दौड़ाता है, दुःखरूप, दुःखहेतुक एवं दुःखफलक (दुःखरूपे/ दुःखफले/दुःखानुबंधे-पंचसूत्र ) संसार को आनंददायक मनवाता है । आनंददायक मनवाकर उसमें आसक्ति पैदा करवाता है । यहीं जीव की वक्रता है ।
अनादि की वक्रता के कारण जीव का झुकाव पुद्गल से प्राप्त होनेवाले सुख की तरफ था, परन्तु मार्ग की प्राप्ति होने पर जीव की मनोवृत्ति परिवर्तित होती है । कषायजन्य पौद्गलिक सुख एवं दुःख काल्पनिक हैं, ऐसा महसूस होता है एवं कषाय के उपशम में ही वास्तविक सुख है, निष्कषाय अवस्था ही सुख का साधन है, इस बात का सहजता से स्वीकार होता है । इसीलिए मार्ग की प्राप्ति वाले जीव को श्रेष्ठ कोटि के सांसारिक 41. जिस कर्म का क्षयोपशम नये कर्मों का क्षयोपशम करवाए, वह सानुबंध कर्मों का क्षयोपशम है । चित्त का सरल गमन सानुबंध मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होता है । इस कर्म का क्षयोपशम बुद्धि को निर्मल करता है । उसके कारण मान्यता परिवर्तित होती है, विषयकषाय दुःखकारक लगते है, संसार असार लगता है एवं उसके कारण होनेवाली परिणतिचिंतन नये-नये कर्म का क्षयोपशम करवाकर गुण की दिशा में आगे बढ़ाता है ।
1