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नमोत्थुणं सूत्र
__१११ सुख में भी कहीं महत्त्वबुद्धि नहीं रहती । सुखकारी इस मार्ग के दर्शन को अन्य महात्मा ‘सुखा' शब्द से संबोधित करते हैं।
अभय और चक्षु की तरह मार्ग के दाता भी अरिहंत परमात्मा ही है । अभय एवं चक्षु की प्राप्ति के बाद मोहनीय कर्म के विशेष क्षयोपशम से जीव का बोध बलवान बनता है । उसमें तत्त्व को सुनने की इच्छा प्रकट होती है और चित्त के अवक्रगमनरूप मार्ग की प्राप्ति होती है । यह बलवान बोध अर्थात् योगमार्ग की तीसरी बलादृष्टि42। ऐसे मार्ग की प्राप्ति होने के पहले जीव शायद धर्म करता है, पर वह धर्म किसी आशंसा या विचार शून्यता से ही होता है, लेकिन संसार से पर किसी भी तत्त्व के प्रति उसे रुचि नहीं होती। मार्ग की प्राप्ति के बाद उसकी धर्मक्रिया आत्मशुद्धि या गुणप्राप्ति के प्रयत्न रूप बनती है, यही चित्त की सरलता है । ऐसी चित्त की सरलता प्राप्त होने से पहले गुणवान गुरु आदि के योग से भी साधक में सम्यग्दर्शन का परिणाम प्रकट नहीं हो सकता । 'हाँ' उसके पहले प्राप्त हुए गुरू के उपदेश या शास्त्राभ्यासादि अनादि की वक्रता त्याग करवाने में और मार्ग को प्राप्त करवाने में निमित्त बनते हैं ।
यह पद बोलते हुए श्रेष्ठ मार्ग को पाकर, मोक्ष में गए परमात्मा को याद करके उन्हें नमस्कार करते हुए उनसे प्रार्थना करनी है -
'हे नाथ ! अनादिकाल से मार्ग भूले हुए हमें आप सत्य मार्ग
बताकर उस पर आगे बढ़ने का सामर्थ्य प्रदान करें ।' सरणदयाणं (नमोऽत्थु णं) - शरण देनेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) ।
शरण देना अर्थात् रक्षण करना । भय से पीड़ित आत्मा की सुरक्षा करनी चाहिए, उसे शांति मिले, वह निर्भय बने, वैसा करना शरण है । 42. बलादृष्टि : पहली दो दृष्टि की अपेक्षा यहाँ विवेक की मात्रा अधिक होती है । मार्ग विषयक
बोध बलवान होता है । इसलिए उसे बलादृष्टि कहते है । इस भूमिकावाला जीव अनादि की वक्रता का त्याग करके सरलता से योगमार्ग में आगे बढ़ता है ।