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________________ १०९ नमोत्थुणं सूत्र “श्रद्धारूप नेत्र के बिना अनंतकाल से यहाँ से वहाँ भटकता हुआ मैं दुःख का भाजन बना हूँ । चक्षुदाता हे विशु ! आपको किया हुआ यह नमस्कार मुझे श्रद्धारूप चक्षु की प्राप्ति में सहायक बनें ।” मग्गदयाणं (नमोऽत्थु णं) - मार्ग39 को प्रदान करनेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) । प्रभु जो मार्ग देते हैं, वह मार्ग दूसरा कोई नहीं, परन्तु मोक्षनगर तक पहुँचाए ऐसी चित्त की सरल परिणति है । गाढ़ मिथ्यात्व मोहनीय के उदय के कारण अनादिकाल से जीव का चित्त वक्र गति से ही चलता था, जिसके कारण दु:ख के कारणभूत संसार और संसार की सामग्री जीव को मनोहर लगती थी एवं सुखकारक आत्मा और आत्मा के गुणों की जीव उपेक्षा करता था । दुःखकारक वस्तु को सुखकारक मानना एवं सुखकारक वस्तु की उपेक्षा करना, यही जीव की वक्रता है । ___ पूर्व के दोनों पदों में देखा कि भव से विरक्त हुआ जीव भगवान की कृपा का पात्र बनता है । भगवान की कृपा से निर्भय बने हुए साधक का चित्त थोड़ा स्वस्थ बनता है । स्वस्थ चित्त से तत्त्व का याने कि सच्चे सुख एवं उसके कारणों का चिंतन करने से मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है और उससे तत्त्व की श्रद्धा प्रकट होती है एवं श्रद्धा के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए सच्चे सुख का मार्ग मिलता है । सच्चे सुख का (हेतु - स्वरूप - फल से शुद्ध सुख का) यह मार्ग ही चित्त का 'अवक्रगमन' है । 39.इह मार्गः चेतसोऽवक्रगमनं, भुजङ्गमगमननलिकायामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः । हेतु - स्वरूप-फल शुद्धा सुखा । 40.चित्त का वक्रगमन क्लिष्ट मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से होता है । क्लिष्ट मिथ्यात्व मोहनीय अर्थात् अनुबंधवाला मिथ्यात्व मोहनीय कर्म अर्थात् जिसकी परंपरा सतत चले ऐसा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म । इस कर्म के उदय से जीव की बुद्धि भ्रमित होती है, मान्यता विपरीत हो जाती है, जिससे दुःखकारक विषयों के पीछे जीव दौड़ता है । उससे पुनः वैसे कर्म बाँधता है । इस प्रकार, कर्मबंध की श्रृंखला चलती ही जाती है, जिसे सानुबंध कर्म कहते हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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