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सूत्र संवेदना भाग १ में मैं बता चुकी हूँ कि सूत्रों के किए हुए ये अर्थ संपूर्ण नहीं हैं। बहुत सारे अर्थ इन सूत्रों के एवं उनके एक-एक पद के हो सकते हैं। विशेषज्ञ आवश्यक निर्युक्ति, ललितविस्तरादि ग्रंथों के माध्यम से उनकी विशेष जानकारी ले लें। इसमें जो कोई अर्थ किया है उसमें कहीं भी शास्त्र विरूद्ध अयथार्थ ना लिखा जाए इसके लिए भरसक प्रयत्न किया है। ऐसा होते हुए भी ज्ञान की न्यूनता, अभिव्यक्ति की अनिपुणता आदि के कारण ये लेख बिल्कुल दोषमुक्त हैं ऐसा तो मैं नहीं कह सकती ।
यथाशक्ति पूर्ण सावधानी रखते हुए भी अज्ञान, प्रमाद या अभिव्यक्ति की कमजोरी के कारण इसमें श्री वीतराग की आज्ञा विरुद्ध यदि कुछ लिखा गया हो तो उसके लिए मैं मिथ्यादुष्कृत मांगती हूँ एवं अनुभवी बहुश्रुतों से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी दृष्टि में यदि कोई दोष दिखे तो निःसंकोच मुझे सूचित करें जिससे दूसरी आवृत्ति के समय उनका सुधार हो सके ।
जैन मर्चन्ट सोसायटी,
राजनगर, आ.सु. १५, वि.सं. २०५९
परमविदुषी प्रशांतमूर्ति पूज्यपाद
सा. श्री चन्द्राननाश्रीजी म.सा. की
शिष्या सा. प्रशमिताश्री
वि.सं. २०५७ की साल में सु. सरलाबहेन के आग्रह से यह लेखन कार्य शुरु किया था। आज देव - गुरु की कृपा से सूत्र संवेदना का वाचक वर्ग काफी विस्तृत हुआ है। गुर्जर भाषा की छठ्ठी आवृत्ति प्रकाशित हो रही है ।
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इस हिन्दी आवृत्ति की नींव है सुविनित ज्ञानानंदी सरलभाषी स्व. सा. श्री विनीतप्रज्ञाश्रीजी जो खरतरगच्छीया विदुषी सा. श्री. हेमप्रभाश्रीजी म. की शिष्या हैं।
उन्होंने वि.सं. २०६३ की साल में मुझे आत्मीयता से निवेदन किया था कि, सूत्र संवेदना साधना का एक आवश्यक अंग है। अतः वह सिर्फ गुजराती भाषा के वाचक वर्ग तक सीमित न रहकर हिन्दी भाषी जिज्ञासु साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के लिए भी उपयोग में आए, इसलिए उसका