________________
नमोत्थुणं सूत्र धर्म के प्रति वास्तविक रुचिरूप बीजाधान जिसमें नहीं हुआ, वैसा जीव भी धर्म करता है । धर्म के फल को बतानेवाले भगवान के उपदेश को सुनकर या भगवान के बाह्य वैभव को देखकर द्रव्य से दीक्षा भी लेता है। उसके कारण उसको अल्पकाल के लिए सुख-समृद्धियुक्त देवादि भवों की प्राप्ति भी होती है एवं दुःख देनेवाले नरकादि भवों से उसकी रक्षा भी होती है । फिर भी बीजाधान बिना का जीव सुख की परंपरा का सृजन करनेवाले आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता एवं दुःख की परंपरा का सर्जन करनेवाले रागादि दोषों से भी मुक्त नहीं हो सकता । इसलिए वास्तविक अर्थ में परमात्मा ऐसे जीवों के नाथ नहीं बन सकते ।
जब कि, बीजाधानवाले जीव अगर एक बार भी भगवान को नाथ के रूप में स्वीकार करके, उनकी आज्ञानुसार धर्मक्रिया करें, तो उससे उनकी सद्गति की परंपरा का तथा क्षमादि गुणों का सर्जन होता है एवं दुःख देनेवाले रागादि भावों का विसर्जन होता है । इस प्रकार क्रमशः गुणों की प्राप्ति एवं दोषों के नाश से आत्मा सिद्धिगति को प्राप्त करती है । इसीलिए, भगवान विशिष्ट भव्य जीव रूप लोक के नाथ कहलाते हैं ।
यह पद बोलते हुए वास्तविक सुख को प्राप्त करवानेवाले एवं प्राप्त किए हुए सुख की रक्षा करनेवाले परमात्मा को हृदय सिंहासन पर स्थापित करके, नमस्कार करते हुए ऐसी भावना का भावन करना चाहिए कि -
'हे करुणानिधि ! अनादिकाल से अनाथ ऐसे मेरे लिए आप वास्तविक अर्थ में नाथ बनो ।' लोगहियाणं (नमोऽत्थु णं) - लोक का हित करनेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।)
यहाँ लोक शब्द से ‘पंचास्तिकाय लोक' ग्रहण करना है । अरिहंत परमात्मा धर्मास्तिकायादि पाँचों द्रव्यों का हित करनेवाले हैं, ऐसा कहकर, उनकी हितकामना सीमातीत है, वह बताया गया है ।