SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र संवेदना - २ यहाँ प्रश्न होता है कि भगवान जीव सृष्टि का हित करते हैं, वह तो ठीक है, परन्तु परमात्मा पुद्गलादि जड़ द्रव्यों का हित किस तरह से कर सकते हैं? व्यवहार नय से एवं निश्चयनय से हित की व्याख्या अलग है । व्यवहार नय बाह्य प्रवृत्ति के आधार पर हिताहित का विभाग करता है, जबकि निश्चय नय स्वपरिणाम के आधार पर हिताहित का विभाग करता है, इसलिए व्यवहारनय से जीव में ही हित की संभावना होने से भगवान जीव का ही हित करनेवाले कहलाते हैं; परन्तु निश्चयनय से जिस विषय में हित का परिणाम प्रवर्तित होता है, उन सबका हित करनेवाले परमात्मा कहलाते हैं । परमात्मा के हित का परिणाम चर-अचर सर्व लोक के लिए प्रवर्तता है, इसलिए प्रभु को पंचास्तिकायरूप लोक का हित करनेवाले कहे गये हैं । किसी भी पदार्थ का हित इस प्रकार होता है - १. जो वस्तु जिस रूप में है, उसी स्वरूप में उसको देखना (यथावस्थित सम्यग्दर्शन) २. जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु को वैसे ही कहना (सम्यक् प्ररूपणा) ३. एवं भविष्य में वस्तु के स्वरूप में कोई विकृति न हो, वैसा वर्तन करना (सम्यक् चेष्टा)। भगवान केवलज्ञान द्वारा जगदवर्ती सर्व पदार्थों को जैसे हैं, वैसे देखते हैं, जिस तरीके से देखते हैं, उसी तरीके से पदार्थों का प्रतिपादन करते हैं एवं भविष्य में उनका अहित न हो, इस तरीके से सर्व द्रव्यों के साथ वर्तन करते हैं । इस प्रकार वे सर्व द्रव्यों का हित32 करनेवाले हैं। जिज्ञासा : परमात्मा यथार्थ दर्शनादि द्वारा धर्मास्तिकायादि का हित करते हैं ऐसा कहा गया है परन्तु धर्मास्तिकायादि में हित जैसा कुछ होता ही नहीं, तो भी परमात्मा को हित करनेवाले कैसे मान सकते हैं ? । 32.तदेवंविधाय लोकाय हिताः । यथावस्थितदर्शनपूर्वकं सम्यक्प्ररूपणाचेष्टया तदायत्यबाधनेनेति च । इह यो यं यथात्म्येन पश्यति, तदनुरूपं च चेष्टते भाव्यपायपरिहारसारं, स तस्मै तत्त्वतो हित इति हितार्थः । - ललित विस्तरा
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy