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________________ ९४ सूत्र संवेदना - २ यह पद बोलते हुए लोकोत्तम पुरुष को याद करके, उनके गुणों के प्रति आदर एवं अहोभाव उल्लसित करके नमस्कार करते हुए ऐसी भावना का स्रोत बहाना है - 'है जगद्वत्सल पिता ! आप जैसे लोकोत्तम पुरुष बने हो, वैसे आपको किया हुआ मेरा सामान्य भी नमस्कार मुझमें लोकोत्तमता का कारण बने ।' लोगनाहाणं ( नमोऽत्थु णं) - लोक के 30 नाथ ऐसे परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो) भव्य जीव दो प्रकार के हैं १. सामान्य भव्य (दुर्भवी), २. विशिष्ट भव्य (आसन्न भव्य ) । धर्म की रुचिरूप बीज का वपन जिसमें हो सकता है, उसे आसन्न भव्य (विशिष्ट भव्य ) कहते हैं । भगवान ऐसे विशिष्ट भव्य जीवों के नाथ हैं । - जो योग एवं क्षेम करते हैं, उन्हें नाथ कहते हैं । 31 बीजाधानयुक्त भव्य जीवों को परमात्मा प्राथमिक कक्षा के धर्म से लेकर मोक्ष तक का सुख प्राप्त करवाते हैं । इस प्रकार अप्राप्त को प्राप्त करवाने द्वारा भगवान उनका योग करते हैं एवं उपदेश प्रदानादि द्वारा प्राप्त हुए धर्म का रक्षण करके क्षेम करते हैं, इसलिए, आसन्न भव्य जीवों (समीप में मोक्ष जानेवाले) के भगवान नाथ हैं । 30. नाथ शब्द की विशेष समझ के लिए देखें - सूत्र संवेदना भाग - २ जगचिंतामणि सूत्र का दूसरा पद । 31. बीजाधान : किसी भी व्यक्ति की औचित्यपूर्ण विशिष्ट धर्मक्रिया को देखकर धर्मक्रियाविषयक विशेष कोई समझ न होने पर भी उस धर्म के प्रति आदर हो और उस आदर के कारण होने वाली प्रशंसा बीजाधान है । उसके बाद ऐसा धर्म मैं किस तरह कर सकता हूँ, वैसी चिंता (जिज्ञासा) वह धर्म का अंकुर है । धर्म विषयक श्रवण कांड है, शास्त्रविहित क्रियाएँ शाखा हैं । क्रिया द्वारा हुई देव-मानवादि संपत्ति, पुष्प है । मोक्ष, फल है । इस प्रकार बीजाधान होने के बाद उत्तरोत्तर सिद्धिरूप फल की प्राप्ति होती है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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