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नमोत्थुणं सूत्र गईं, परन्तु उन सब जीवों में भी प्रत्येक अरिहंत की आत्मा अलग ही होती है । उनका तथाभव्यत्व ही ऐसी विशिष्ट कोटि का होता है कि, वे जहाँ जाते हैं वहाँ विशिष्ट भाव को प्राप्त करते हैं । अंतिम भव में तो तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से वे सर्वश्रेष्ठ समृद्धि को प्राप्त करते ही हैं, परन्तु एकेन्द्रियादि के भव में पृथ्वीकाय के जीवों में चिंतामणि रत्न, पद्मराग रत्न वगैरह उत्तम रत्नों की जाति में उत्तम रूप से उत्पन्न होते हैं । अप्काय में वे महान तीर्थोदक (तीर्थजल) के रूप में उत्पन्न होते हैं । तेउकाय में मंगलदीप आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं । वायुकाय में हो, तब मलयाचल पर्वत के वसंतऋतु कालीन मृदु, शीतल और सुगंधि पवन वगैरह के रूप में उत्पन्न होते हैं । वनस्पतिकाय में हों, तब उत्तम प्रकार के चंदन, कल्पवृक्ष, आम, चंपक, पारिजात अशोक वगैरह वृक्षों के रूप में अथवा चित्रावेल, नागवेल, द्राक्षावेल वगैरह प्रभावशाली औषधियों के रूप में उत्पन्न होते हैं । बेइन्द्रिय में दक्षिणावर्त शंख, शुक्तिका, शालिग्राम आदि में उत्पन्न होते हैं। इसी तरह तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच में सर्वोत्तम प्रकार के हाथी या उत्तम लक्षणवाले अश्व के रूप में उत्पन्न होते हैं । अतः कहा गया है कि, औदायिक भाव की अवस्था भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ कोटि की प्राप्त होती है।
इसके अतिरिक्त, कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न होनेवाले उनके सम्यक्त्वादि गुण भी विशेष प्रकार के होते हैं । अन्य जीव दर्शन-मोहनीय के क्षयोपशम या क्षय से सामान्य बोधि को प्राप्त करते हैं, जब कि अरिहंत की आत्मा दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय से सर्व जीवों को शासन रसिक बनाने की इच्छारूप वरबोधि को प्राप्त करती है । अन्य जीव घातिकर्म के नाश से केवलज्ञानादि गुण प्राप्त करके मोक्ष में जाते हैं; जब कि, अरिहंत की आत्मा केवलज्ञान प्राप्त करके, तीर्थ की स्थापना करके, जगत् के जीवों को अनंत सुख का मार्ग बताकर मोक्ष में जाती है । इस प्रकार उनका मार्गदेशकादि गुण भी विशेष होने से वे लोकोत्तम पुरुष कहलाते हैं ।