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सूत्र संवेदना
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अरिहंत भगवान स्तुति करने योग्य क्यों हैं ? उसका असाधारण कारण इस संपदा में बताया गया है । अनादिकाल से परमात्मा का स्वरूप कैसा था वह 'पुरिसुत्तमाणं' पद से बताया गया है। संयम स्वीकार करने के बाद वे कैसे पराक्रमी हुए वह 'पुरिस - सीहाणं' पद द्वारा ज्ञात कराया । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद वे परवादी के लिए गंधहस्ती कैसे हुए, यह 'पुरिसवरगंध - हत्थी' पद द्वारा बताया गया । अंत में मोक्ष प्राप्त होने के बाद वे कैसे होते हैं वह 'पुरिस - वर - पुंडरि आणं' पद द्वारा बताकर निगोद अवस्था से लेकर अंतिम समय तक, परमात्मा का स्वरूप कितना विशिष्ट था । यह इस संपदा में बताया ।
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इतना जानने के बाद अब प्रेक्षावान को प्रश्न होता है कि ऐसे विशिष्ट भगवान से हमें क्या लाभ ? उसके समाधान के लिए ही चौथी 'सामान्य उपयोग संपदा' बनाई है क्योंकि प्रेक्षावान व्यक्ति फ़ल प्रधान प्रवृत्ति करनेवाले होते हैं ।
लोगुत्तमाणं ( नमोऽत्थु णं) - ( भव्य ) लोक में उत्तम परमात्मा को ( मेरा नमस्कार हो ।)
लोक 28 शब्द से यहाँ भव्य जीव रूपी लोक अर्थ ग्रहण करना है । अभव्य रूप लोक में भगवान को उत्तम कहने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि, अभव्यादि में तो सभी भव्य जीव उत्तम हैं; परन्तु इन भव्यों में भी भगवान उत्तम हैं । वैसा इस पद द्वारा कहा गया है ।
भव्य 29 का अर्थ है मोक्ष गमन के योग्य । मोक्ष में जाने के योग्य आत्माएँ तो बहुत हैं । आज तक अनंत आत्माएँ कर्मक्षय करके मोक्ष में
28. लोक शब्द समुदायवाची है । समुदायवाची शब्द का प्रयोग समुदाय के एक भाग के लिए भी हो सकता है । लोक शब्द से पंचास्तिकाय रूप लोक का ग्रहण हो सकता है, उसी तरह लोक शब्द से भव्य लोकादि का भी ग्रहण हो सकता है ।
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29. सर्व प्रयोजन जहाँ सिद्ध होते हैं; वैसे मोक्ष नाम के स्थान को प्राप्त करने की योग्यता वह भव्य है ।