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नमोत्थुणं सूत्र यह पद बोलते हुए कमल की उपमावाले परमात्मा को याद करके ऐसी इच्छा अभिव्यक्त करनी चाहिए कि -
“हे नाथ ! कमलवत् सर्व बाह्य भावों से अलिप्त आपको किया हुआ नमस्कार, मुझे भी सर्व बाह्य भावों से अलिप्त करके आपके
जैसा निर्लेप बनाए ।” पुरिस-वर-गंध-हत्थीणं (नमोऽत्थु णं)- श्रेष्ठ गंधहस्ती जैसे परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।)
ढूंढरूप हाथ जिसको है, उसे हस्ती कहते हैं । जिस हाथी के गंडस्थल से अति सुगंधयुक्त मद झरता है, वह गंधहस्ती कहलाता है । ऐसे गंधहस्तियों में भी जो श्रेष्ठ है, जिसकी सुगंध मात्र से क्षुद्र-कमज़ोर हाथी घबराकर भाग जाते हैं, उसे 'वर-गंध-हत्थि' कहते हैं ।
भगवान श्रेष्ठ गंधहस्ती तुल्य हैं क्योंकि, जैसे गंधहस्ती को किसी के साथ युद्ध नहीं करना पड़ता, परन्तु उसकी गंध मात्र से ही निर्बल कमज़ोर हाथी दूर भाग जाते हैं, उसी तरह परमात्मा को भी किसी मंत्र-तंत्र की साधना नहीं करनी पड़ती । मंत्रादि की साधना के बिना ही भगवान जहाँजहाँ विहरते हैं, वहाँ से अति-वृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, इत्यादि-उपद्रव या अनिष्ट दूर चले जाते हैं । निर्बल-कमज़ोर हाथी के समान सर्वज्ञ के विषय में संदेह करनेवाले कुवादी भी सर्वज्ञ के सामने टिक नहीं सकते । अनिष्टकारी कोई भी तत्त्व परमात्मा की उपस्थिति में टिक नहीं सकता । इसलिए परमात्मा श्रेष्ठ गंधहस्ती तुल्य हैं ।
यह पद बोलते हुए श्रेष्ठ गंधहस्ती की उपमा से जिनके आंशिक स्वरूप की झलक हो सकती है, वैसे त्रिलोक बंधु परमात्मा को हृदयस्थ करके भाव नमस्कार करते हुए प्रभु के सामने ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए -
'हे परमात्मन् ! आपको भाव से किया हुआ नमस्कार मेरी साधना में आनेवाले विघ्नों के बादलों को बिखेर डाले ।'