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सूत्र संवेदना
२. व्यवहारनय से ब्रह्मचर्य :
ब्रह्मचर्य याने मैथुन का त्याग करना; अर्थात् देव, मनुष्य या तिर्यंच संबंधी विषयभोगों का उपभोग न करना, ब्रह्मचर्य है ।
नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की बाड़ के पालनपूर्वक भोगादि की क्रिया से निवृत होना द्रव्य से ब्रह्मचर्य का पालन है तथा भोगादि के भावों में आगे बढ़ रही आत्मा को इस बाड़ के पालन द्वारा, उस मार्ग से रोककर वेद के उदय को शांत करके आत्मभाव में स्थिर करने का यत्न करना वह भाव से ब्रह्मचर्यव्रत है।
अब्रह्म महाप्रमाद का कारण है एवं यह विशेष प्रकार से राग-द्वेष को उत्पन्न करता हैं । अब्रह्म के सेवन से वीर्य का नाश होता है तथा वीर्य के नाश से सत्त्व का नाश होता है और सत्व के नाश से विशिष्ट प्रकार के धर्म की साधना नहीं हो सकती । कहते हैं कि 'न हि धर्माऽधिकारोऽस्ति हीनसत्वस्य देहिनः ' सत्त्वविहीन आत्मा को धर्म का अधिकार ही नहीं हैं एवं धर्म का प्रारंभ किए बिना कर्मनिर्जरा नहीं होती तथा विशिष्ट कर्म निर्जरा के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती, इसलिए विशुद्ध कोटि के धर्म पालन के लिए, आत्मा की शुद्धि के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है ।
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पाँच महाव्रतों में यह चौथा व्रत है और अति महत्त्वपूर्ण है । इसकी रक्षा करना अत्यंत मुश्किल है । अनादिकाल से जीव जब निगोद स्वरूप एकेन्द्रिय के भव में था, तब से उसके साथ स्पर्शेनेन्द्रिय तो थी ही । आगे भी जब जीव, विकलेन्द्रिय में या पंचेन्द्रिय के भव में आया, तब वहाँ भी उसे यह इन्द्रिय तो मिली ही थी । इस तरह अनादिकाल से स्पर्श का अभ्यास अति गाढ़ होने से स्पर्शनेन्द्रिय के विचारों से मुक्त होना अति दुष्कर है । इस दुष्कर कार्य को सिद्ध करने के लिए ही ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिए निम्नोक्त नौ बाड़ का विधान किया है ।
१. विविक्त वसति सेवा - स्त्री, पशु, नपुंसक के वास से रहित वसति में रहना।
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२. स्त्री कथा परिहार - स्त्री के साथ या उसके संबंधी बातें नहीं करना ।