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श्री पंचिदिय सूत्र
इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है ..
“प्रवाह से विपरीत चलनेवाले मेरे गुरुभगवंत धन्य हैं । जिन विषयों को भोगने का मैं निरंतर प्रयत्न करता रहता हूँ, उन विषयों से वे दूर रहते हैं । काया से कभी उनको विषयों में प्रवृत्ति
करनी भी पड़े तब भी वे उनमें अनासक्त रहने का प्रयत्न करते हैं । ऐसे गुरुभगवंतो के प्रति हृदय में बहुमान जागृत होगा, तो
ही मैं इस संवर भाव तक पहुँच पाऊँगा ।” तह नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो : तथा नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति को धारण करनेवाले मेरे गुरु हैं ।।
ब्रह्मचर्य आत्मा का धर्म है । उसकी सुरक्षा के लिए शास्त्र में नौ नियम बताए हैं । जिसे ब्रह्मचर्य की गुप्ति या बाड कहा जाता है । आत्मिक सुख को चाहनेवाले मुनि भगवंत इन नौ बाड का पूर्णतया पालन करते हैं । ब्रह्मचर्य का स्वरूप :
ब्रहचर्य शब्द का सामान्य अर्थ है कि विजातीय भोगादि से निवृत होना और विशेष अर्थ यह है कि पाँच इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त होकर आत्मभाव में रमण करना । ब्रह्मचर्य का वर्णन शास्त्रों में अनेक दृष्टिकोण से किया है । निश्चयनय से और व्यवहारनय से ब्रह्मचर्य का स्वरूप इस प्रकार है । १. निश्चयनय से ब्रह्मचर्य : ब्रह्मणि चर्यते इति ब्रह्मचर्यः अर्थात् ब्रह्मणि = आत्मा में; चर्यते = चरना; इस व्युत्पत्ति से आत्मा के गुणों में रमण करना, निश्चय से ब्रह्मचर्य है । विभाव में से आत्मा के स्वभाव में आना, ब्रह्मचर्य कहलाता है और इस तरह देखा जाए तो आत्महित करनेवाली कोई भी क्रिया ब्रह्मचर्य रूप ही है ।