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________________ ६४ सूत्र संवेदना द्रव्य-संवर तो हो ही जाता है। पर इस द्रव्य त्याग के साथ अनादिकालीन विषयों की आसक्ति तोड़कर भावसंवर करने के लिए वे संकल्प करते हैं कि, “अब रागादि भावों के अधीन होकर इन्द्रियों का प्रवर्तन नहीं करूँगा और भगवान के वचनरूप श्रुतज्ञान के अनुसार ही इन्द्रियों का प्रवर्तन करूँगा । अब तक अज्ञान एवं अविरति के कारण इन्द्रियों के कोई भी विषय प्राप्त होने पर उनमें रागादि भाव हो ही जाते थे, क्योंकि इन्द्रियों के मनभावक विषयों में राग और विपरीत विषयों में द्वेष करने की मेरी अनादिकाल से वृत्ति रही है । अब मुझे इस वृत्ति को बदलना है । अतः विषयों से दूर रहकर मुझे मन को भावित करना है कि, "ये पुद्गल मुझे सुख भी नहीं देते और दुःख भी नहीं देते । इनका स्वभाव भिन्न है एवं मेरा स्वभाव भिन्न है । पुद्गलों में कुछ अच्छा भी नहीं हैं । कुछ बुरा भी नहीं है । सिर्फ मेरी कल्पना से ही मुझे कुछ पदार्थ अच्छे लगते हैं, तो कुछ बुरे लगते हैं । मोहाधीन कल्पना ही मुझे सुखी और दुःखी करती है । मेरा स्वभाव तो मात्र इन पुद्गलों के धर्म का ज्ञान करने का है, लेकिन उनमें रागादि करने या रागादि से उनका भोग करने का नहीं है ।" ऐसी भावनाओं द्वारा मुनि खुद को पौद्गलिक भावों से परे रखने की मेहनत करते हैं । साधना क्षेत्र में सतत प्रगतिशील मुनि भगवंत मात्र इन्द्रियों के विषयों में ही नहीं, परंतु कहीं भी कर्तृत्व, ममत्व या राग-द्वेष के परिणाम भी स्पर्श न करें उसके लिए अत्यंत जागृत रहते हैं । इस जागृति के कारण ही मुनि पाँच इन्द्रियों के संवरभाववाले कहलाते हैं । इस प्रकार भगवान के वचन के सहारे प्रयत्न करते-करते जब इन्द्रियों के विषयों को देखने, जानने या उपभोग करने की उत्सुकता, आकुलता, eagerness, anxiousness, keenness शांत हो जाती है, तब जीव का मूल ज्ञातृत्वभावरूप (ज्ञाता-द्रष्टा भाव) स्वभाव प्रकट होता है और वही भावसंवर है। ..
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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