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श्री पंचिदिय सूत्र
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इन्द्रियों को अपने विषयों मे, प्रवृत्ति करने से रोकना द्रव्य संवर' है, एवं प्राप्त-अप्राप्त विषयों में राग-द्वेष न करना 'भाव संवर', है ।
तप, त्याग, नियमादि करके, मनोज्ञ विषयों का त्याग करने से या अमनोज्ञ विषयों का सहर्ष स्वीकार करने से 'द्रव्य संवर' निष्पन्न होता है, एवं ऐसी शुभ क्रियाएँ करते करते चिंतन, भावना, ध्यान द्वारा मन को रागादि से मुक्त रखने से 'भाव संवर' निष्पन्न, होता है ।
यदि साधक इन्द्रियों के विषयों के बाह्य त्याग मात्र में साधना की विश्रांति मानता हो और उसी कारण बाह्य तौर से तप-संयमादि अनुष्ठान में यत्न भी करता हो, परंतु अंतर से अव्यक्त रूप से पुद्गल में अच्छे-बुरे भावों की असरवाला रहता हो, तो उसके बाह्य त्याग को द्रव्य संवर कहते हैं अर्थात् स्थूल व्यवहार से ही वह संवर है ।
इसके विपरीत अगर साधक स्वाध्याय, भावना आदि द्वारा, संसार के कारणभूत इन्द्रियजन्य भावों से दूर रहने का सतत प्रयास करता हो और अच्छे बुरे-पदार्थों में सहज उठते हुए रागादि भावों को रोककर विषयों के संपर्क के समय भी सिर्फ उन-उन विषयों को जानने हेतु अपने उपयोग को जोड़ता हो, तो जितने अंश में उसके ज्ञान में से रागादि विकृति दूर होती हो एवं जितने अंश में उसका ज्ञातृत्व भावरूप शुद्ध स्वभाव प्रकट होता हो, उतने अंश में उसकी क्रिया भावसंवर बनती है।
यह भावसंवर चरमावर्त काल में ही प्राप्त होता है । उसमें भी जब साधक संसार से विरक्त होकर, संसार के निस्तार के लिए संयम जीवन स्वीकार कर, समिति-गुप्ति के पालन में प्रवृत्त होता है, तब ही उसे यह "भाव संवर" प्राप्त होता है, जब कि द्रव्य संवर तो अचरमावर्त काल में भी जीव को अनंतबार प्राप्त होता है । भावसंवर की प्राप्ति का उपाय : दीक्षा ग्रहण करके सर्व सांसारिक संबंध आदि का त्याग करने से मुनि का