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सूत्र संवेदना
हो, वैसे भावाचार्य को ही मुख्यरूप से इस सूत्र द्वारा गुरु के तौर पर उपस्थित करना है।
तीर्थंकर की अनुपस्थिति में शुद्ध प्ररूपणा करने की क्षमता को लेकर, इस सूत्र में बताए हुए छत्तीस गुणसंपन्न भावाचार्य तीर्थंकर तुल्य माने जाते हैं । इसके अलावा शास्त्र में आचार्यों के गुणों का वर्णन छत्तीस छत्तीसी से भी किया है अर्थात् छत्तीस प्रकार के छत्तीस गुण बताए गए हैं । फिर भी यहाँ पर आचार्य, उपाध्याय एवं साधु तीनों में सामान्यतया लक्षित होनेवाले गुणों का ही वर्णन किया है । __ ऐसे गुरु भगवंतों का मन संसार के भावों से अत्यंत विरक्त होता है । जगत् के तमाम जीवों को वे 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' सूत्र के आधार पर अपने जैसा मानते हैं । पाँच समिति और तीन गुप्तिओं का साम्राज्य जो मोक्ष का अनन्य कारण है, उसको ये महात्मा विशेष रूप से स्वीकार करते हैं । आत्म-स्वरूप को पुष्ट करने के लिए ही वे इन्द्रियों का संवर आदि करते हैं । काषायिक भावों का संस्पर्श न हो, इसकी वे सदा सावधानी रखते हैं । ब्रह्मचर्य के पक्के हिमायती होते हैं । ऐसे भावाचार्य को इस सूत्र द्वारा हृदयस्थ करना चाहिए और उनको परतंत्र रहकर, उनकी अनुज्ञापूर्वक उनके जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए ही सामायिक आदि क्रिया के पूर्व इस सूत्र द्वारा उनकी स्थापना करनी चाहिए । मूलसूत्र : पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो । चउविह-कसाय-मुक्को, इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो ।।१।। पंच-महव्वय,जुत्तो, पंचविहायार पालण-समत्थो । पंच-समिओ, ति-गुत्तो, छत्तीस-गुणो गुरु मज्झ ।।२।।
संपदा
पद-८
अक्षर-८०