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श्री नमस्कार महामंत्र कारण यह है कि, अर्थापत्ति के प्रमाण द्वारा अर्थ की प्रनीति विद्वानों को हो सकती है, परन्तु सामान्य जन को नहीं । इसलिए वे भी आसानी से समझ सकें, इस कारण 'मंगलाणं च सव्वेसिं' पद रखा गया है । '
अगर आठवें पद का कथन किए बिना ही पढमं हवइ मंगल' का कथन किया जाए तो व्याकरण ग्रंथों के अनुसार प्रथम शब्द क्रिया विशेषण बन जाता है और उस 'प्रथम' का अर्थ 'पूर्वकाल' में ऐसा होता है । इससे यह नमस्कार पूर्वकाल में मंगलरूप है, परन्तु उत्तरकाल में अर्थात् की अभी मंगलरूप नहीं है, ऐसे अनिष्ट अर्थ की संभावना होने के कारण यह पंच नमस्कार सर्वकाल में मंगलरूप है, ऐसा प्रतीत करवाने के लिए ही आठवाँ पद रखा गया है ।
जिज्ञासा : 'पढम हवइ मंगलं' पद में प्रथम शब्द का प्रयोग किया, तो उसके बदले में उत्तम या प्रधान, श्रेष्ठ आदि कोई शब्द का प्रयोग किया होता तो ?
तृप्ति : 'प्रथम' शब्द 'पृथु विस्तारे' धातु से बनाया गया है । 'पृथु' धातु का अर्थ विस्तार होता है अर्थात् यह पाँच नमस्कार स्वरूप मंगल, प्रतिदिन वृद्धि पाकर विस्तीर्ण होता है । इसमें कभी हास (हानि) नहीं होता । यदि प्रथम शब्द के बदले उत्तमादि शब्द का उपयोग किया होता तो ऐसा अर्थ नहीं होता । मात्र ये पंच नमस्कार उत्तम मंगल है ऐसा ही अर्थ होता ।
जिज्ञासा : नौवें पद में 'हवइ' क्रियापद के प्रयोग बिना भी अध्याहार से हवइ क्रियापद के अर्थ को जान सकते थे, फिर भी 'हवइ' पद का उपयोग क्यों किया ?
तृप्ति : क्योंकि हवइ = भवति के अनुसार 'हवइ' का अर्थ होने रूप जो क्रिया है, वह निरन्तर विद्यमान रहे ऐसा होता है । इस तरह ‘यह पंच नमस्कार रूप मंगल वृद्धि पानेवाला उत्कृष्ट मंगल है तथा वह निरंतर विद्यमान रहता है ।' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । यदि 'हवइ' क्रियापद का प्रयोग न किया होता, तो ऐसा अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता था ।