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________________ शैली में नवकार से लेकर सामायिक व्रत को स्वीकार करने के लिए आवश्यक सूत्रों का विवेचन किया है। यह विवेचन मात्र विवेचन न रहता हुआ ऐसा हृदयंगम बना है कि पढ़ते-पढ़ते वाचक को अपनी धर्म क्रियाओं को इस तरीके से मूल्य करने का मन हुए बिना नहीं रहता कि, मेरी क्रियाओं में धर्म आया है कि नहीं; ऐसे ही मेरी क्रियाएं धर्मरूप बनी हैं कि नहीं ? प्रस्तुत विवेचन की यह विशेषता अनोखी होने से आँखें टिकी रहे ऐसी बन पड़ी है। __ सूत्र परिचय, मूल सूत्र, अन्वय सहित संस्कृत छाया एवं शब्दार्थ, जिज्ञासा-तृप्ति और सूत्रोच्चार के समय भाने योग्य भावना, इस क्रम से इसमें सामायिक सूत्रों का विवेचन हुआ है। विवेचन इतना संक्षिप्त भी नहीं कि लिखने-कहने जैसा कुछ रह जाय एवं इतना विस्तृत भी नहीं कि पढ़तेपढ़ते विषयांतर होता हुए लगे ! सामायिक सूत्रों की इस विवेचना पर वाचन-मनन एवं चिंतन-मंथन हो, तो ऐसा लगे बिना न रहे कि स्वभाव में स्थिर रहना ही बहुत सहज, सरल एवं आसान है। यदि मुश्किल, कठिन एवं असहज हो तो वह विभाव में भटकना। सामायिक की सार्थकता ही स्वभाव को समझ लेने में है। यदि हम स्वभाव में लम्बे समय तक स्थिर नहीं रह सकते हों तो अपनी स्वस्थता ही मर गयी होती। इस बात को बराबर समझना हो, तो ‘स्वभाव-विभाव' का स्वरूप सर्वप्रथम समझ लेना चाहिए। पानी को नजर के सामने रखकर ‘स्वभाव-विभाव' को समझने का प्रयत्न करें तो यह बात बड़ी सरलता से समझ में आ जायेगी। पानी का स्वभाव क्या ? कहना ही पड़ेगा, शीतलता। शीतलता पानी का स्वभाव है, इसीलिए पानी अधिक समय तक शीतल रह सकता है एवं शीतलता टिकाए रखने के लिए पानी को कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती। उष्णता पानी का विभाव है। इसलिए उष्णता पाने के लिए पानी को मेहनत करनी पड़ती है। चुल्हे पर चढ़ाने पर ही उसमें गरमी आती है। इस गरमी को टिकाकर
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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