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संवेदना जागृत करे वो सूत्र ! सूत्र के साथ संबंधित हो वो संवेदना ! सूत्र की सार्थकता संवेदना जागृत करने में है तो संवेदना की सफलता स्मृति में सूत्रार्थ सजीवन हो उठे उसमें है। सूत्र शब्द से यहाँ गणधर भगवंतों द्वारा रचित आवश्यक सूत्र समझना है एवं संवेदना शब्द यहाँ भावधर्म रूप अभिप्रेत है। सूत्र को दूध सदृश समझें तो संवेदना को शक्कर समझ सकते हैं। सूत्र सुवर्ण की तरह है तो संवेदना सुवर्ण में सुगंध समान है। सार ये है कि, धर्मक्रियाओं की सफलता-सार्थकता भावधर्म के जागरण में है। भावधर्म का जागरण न हो या भावधर्म को जागृत करने की भावना भी न हो तो धर्म क्रिया का परम एवं चरम फल नहीं मिल सकता ।
धर्म की समग्र सृष्टि को ध्यान में रखते हुए यह तथ्य यदि हम प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाओं के संदर्भ में विचारें तो सूत्र के साथ संवेदना और संवेदना के साथ सूत्र का संबंध होने की अनिवार्यता समझे बिना न रहे। ऐसी समझ पैदा होने के बाद सूत्र एवं संवेदना के बीच सेतु बनकर दोनों का संधान बनाये, ऐसे कोई माध्यम की तरफ अपनी दृष्टि जाये बिना न रहे। प्रतीक्षा के ऐसे पलों में जिसकी प्राप्ति से प्रसन्न-प्रसन्न हो जाये, ऐसा एक माध्यमरूप प्रकाशन है 'सूत्र संवेदना' ।
सूत्र की तरह उसे ही आदर दे सकते हैं, जो सुप्त संवेदनाओं को जागृत करे एवं सच्ची संवेदना उसे ही मान सकते हैं, जिसका संबंध सूत्र के साथ हो। हृदय में इस प्रकार की हलचल जागृत करने में समर्थ इस पुस्तक को दिया गया नाम ‘सूत्र संवेदना' असलीयत में बहुत ही सार्थक लगता है। अल्प समय में ही द्वितीय आवृत्ति (आज सूत्र संवेदना-१ की छट्ठी आवृत्ति एवं सूत्र संवेदना भाग-१ से ६ गुजराती प्रकाशित है। हिन्दी में भाग १ से ४ प्रकाशित है और ५-६ प्रकाशन-अधीन है) के इस पुनःप्रकाशन में विदुषी साध्वी प्रशमिताश्रीजी ने बहुत ही सुन्दर और सरल होते हुए भी सचोट