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________________ अनुवादक की अभिलाषा स्वार्थ से सर्वार्थ का प्रयाण ही जीवन की सर्वोत्तम यात्रा है। इसीलिए जैन दर्शन में तीर्थंकर सर्वप्रथम पूजे गये क्योंकि उन्होंने ही त्रिपदी की रचना की और द्वादशांगी के प्रणेता बने । __जैन दर्शन का अनुत्तम मंत्र भी इसलिए वो मंत्र है जिसमें पंच परमेष्टि को वंदन किया जाता है। जिसमें साधक उनको नमन तो करते ही हैं जो कृतकृत्य हो गये, पर साथ में उन्हें भी वंदन करते हैं जो उस राह पर आरूढ़ हैं। कोई नाम नहीं, कोई आकार नहीं, कोई प्रकार नहीं; लक्ष्य हैं तो केवल वंदनीय गुणों का जिसके लिए हमने जन्म लिया है। और यही तो मूलतः अंतर नमस्कार महामंत्र एवं दूसरे मंत्रों में है। ये नमस्कार ही सभी पापों का नाश करता है और सर्व का सर्वोत्कृष्ट मंगल करने का हेतु बनता है। इस पुस्तक में चर्चित सभी सूत्रों का आधार यही महामंत्र है, जिसका बखूबी विवेचन किया है गुरुवर्या प.पू.विदुषी सा.श्री प्रशमिताश्रीजी ने। भाषांतर करना सरल तो नहीं, फिर भी यथाशक्ति गुजराती भाषा से हिन्दी में अनुवाद करने का प्रयास किया है, इस उम्मीद के साथ कि इस पुस्तक में निहित भावार्थ हिन्दी प्रेमी संघ के सदस्यों के लिए उपकारी बनेगा। पूर्व की तरह सराहनीय साथ दिया है भाई शैलेषजी मेहता ने । कार्यकर रहते हुए भी उन्होंने समय निकाला है धर्म प्रभावना के लिए। श्रद्धेय सा. श्री प्रशमिताश्रीजी का वरदहस्त आशीर्वाद रूप रहा और पू. सा. श्री जिनप्रज्ञाश्रीजी का स्नेह भी जो इस भाषांतर को पूर्ण करने का हेतु बना। किन शब्दों में उनके प्रति कृतज्ञता प्रेषित करूँ ? कोटि कोटि नमन। वंदन स्व. पू. गुरुवर्या श्री हेमप्रभाश्रीजी एवं सा. विनीतप्रज्ञाश्रीजी के चरण कमलों में भी जो इस धर्म लाभ का कारण बनीं। ऐसे अवसर पुनः पुनः मिले ताकि प्रत्यक्ष या परोक्ष में जिनशासन की निःस्वार्थ सेवा कर सकूँ, यही अभिलाषा... १०, मंडपम रोड, किलपॉक, - डॉ. ज्ञान जैन चेन्नई - ६०००१०.. B.Tech.,M.A.,Ph.D. श्रावण सुद-१५ २०६८
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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