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________________ श्री नमस्कार महामंत्र को सर्व कर्म अशुभ नहीं लगतें, मात्र दुःख देनेवाले पाप कर्म ही अशुभ लगते हैं, यह नवकार मंत्र पाप का नाश करता है, ऐसा की भी इस मंत्र में सहज प्रवृत्ति की शक्यता बनती है । ज्ञानकर बालजीवों ५३ अथवा 'पाशयति इति पाप' आत्मा को जो बाँधे, वह पाप है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार मोहनीय कर्म को पाप कहा जा सकता है, क्योंकि वह आत्मा को बाँधकर रखता है । पापरूप इस मोहनीय कर्म का सर्वप्रकार से नाश होता है, ऐसा भी अर्थ हो सकता है । जिज्ञासा : यहाँ 'प्पणासणो' शब्द के बजाय 'नासो' शब्द ही रखा होता तो ? तृप्ति : 'प्पणासणो' पद से प्रकृष्ट प्रकार से नाश होता है, ऐसा ग्रहण करना है, मात्र नाश करनेवाला है, ऐसा नहीं कहा । यदि सिर्फ नाश करनेवाला है, ऐसा कहा होता तो नाश हुए पापों का उनके योग्य निमित्त कारण मिलते ही पुनः उत्पन्न होने की संभावना रहती, लेकिन यहाँ तो पापों का ऐसा नाश करना है कि नाश होने के बाद वे पाप जीवन में फिर से कभी भी उत्पन्न न हो सकें अर्थात् पाप को निर्मूल करना है; इसलिए ही सिर्फ नाश शब्द का प्रयोग न करके, प्रनाश शब्द का प्रयोग किया है । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं 38 - सर्व मंगलों में प्रथम मंगल है । - जिसके द्वारा हित हो, उसे मंगल कहते हैं या जो 'मंग' अर्थात् धर्म को लाता है, उसे मंगल कहते हैं । जगत् के जीव कोई भी शुभ कार्य करने से पहले उनमें कोई विघ्न न आए, इसलिए अनेक प्रकार की मंगलकामना करते हैं । उन सब मंगलों में 38. आठवाँ और नौवां पद १७ अक्षर के है वो अध्ययन स्वरूप हैं ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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